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गीताध्याय - 1, श्लोक - 1
धृतराष्ट्र का पुत्र मोह
धृतराष्ट्र का संजय से प्रश्न
धृतराष्ट्र उवाच
धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः।
मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत सञ्जय।। (1/1)
धृतराष्ट्र बोले -
सञ्जय - हे संजय!
धर्मक्षेत्रे - धर्मभूमि
कुरुक्षेत्रे - कुरुक्षेत्र में
समवेताः - इकट्ठे हुए
युयुत्सवः - युद्ध की इच्छा वाले
मामकाः - मेरे
च - और
पाण्डवाः - पाण्डु के पुत्रों ने
एव - भी
किम् - क्या
अकुर्वत - किया?
धृतराष्ट्र के इस प्रश्न से ऐसा लगता है कि उन्हें भीष्म पितामह के आहत होने तक युद्ध का कोई समाचार ही नहीं मिला। पर यह संभावना ठीक नहीं मालूम पड़ती, क्योंकि संजय प्रतिदिन ही युद्ध की खबरें महाराज धृतराष्ट्र को सुना जाते थे। तब युद्ध के दसवें दिन ही इस प्रकार का प्रश्न धृतराष्ट्र के मन में कैसे उठा यह विचारणीय है। यह तो हम सभी जानते हैं कि दुर्योधन अपनी विजय के संबंध में आश्वस्त था, क्योंकि उसकी ओर 11 अक्षौहिणी की सेनाएं थी जबकि पांडवों की ओर केवल सात। फिर कौरवों की ओर से भीष्म पितामह, द्रोणाचार्य, कृपाचार्य एवं कर्ण जैसे महा बलवान योद्धा थे। इसलिए धृतराष्ट्र भी अपने पुत्रों की विजय को निश्चित मानते थे। धृतराष्ट्र के इस सपने पर जबरदस्त आघात तब लगा लगता है, जब भीष्म का युद्ध में पतन हो गया। संजय के मुख से यह दारुण समाचार सुन धृतराष्ट्र सन्न रह गए और थोड़ी देर के लिए अपने होश हवास गवां बैठे। उन्हें कल्पना में भी आशा नहीं थी कि भीष्म पितामह इस प्रकार आहत हो जाएंगे। अब उन्हें ऐसा लगने लगा कि कौरवों की कहीं हार ना हो जाए। इस डर से उनके भीतर कायरता सूचक मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया होने लगी। वह मन ही मन सोचने लगे कि पांडव तो धर्मात्मा है, विशेष रूप से युधिष्ठिर तो अत्यंत धर्मभीरु और कोमल प्रकृति वाला है। कुरुक्षेत्र सदैव से धर्म क्षेत्र के रूप में प्रसिद्ध रहा है। तो ऐसे धर्म क्षेत्र में आकर क्या युधिष्ठिर का धर्म भाव नहीं जागा? जिस क्षेत्र में बड़े-बड़े यज्ञ किए गए और धर्म अनुष्ठान संपन्न हुए, वहां उपस्थित होकर क्या युधिष्ठिर के मन में दया और करुणा नहीं उपजी? वह भला ऐसा घोर संहारात्मक युद्ध करने के लिए कैसे राजी हो गया? उसने युद्ध को बंद ही क्यों न करवा दिया? ऐसे ही विचार धृतराष्ट्र के मन में भीष्म पतन के समाचार से उठने लगे, और इन्हीं विचारों से उद्वेलित हो वह संजय से उक्त प्रश्न पूछ बैठे।
धृतराष्ट्र का चरित्र एक सामान्य मानव का चरित्र है, जो अनेकों प्रकार की कमजोरियों से भरा हुआ है। उन्हें अपने पुत्रों के प्रति अत्यंत ममत्व हैं। अतएव यह जानकर भी कि दुर्योधन दुराचारी है, दुशासन लंपट है, वे चुप्पी साधे रहते हैं। गांधारी ने कई बार उन्हें सलाह दी कि आप दुर्योधन का त्याग कर दें, पर पुत्र मोह की प्रबलता ऐसी है कि महाराज धृतराष्ट्र अपनी आंखों के सामने अपने ही भाई पांडु के पुत्रों का अनर्थ होते देख भी मौन धारण किए रहते हैं। उनकी पुत्रों पर यह आसक्ति और पांडवों के प्रति परायापन उनके शब्दों से ही झलकता है, जब वह संजय से पूछते हैं -'मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत' -'मेरे जनों और पांडव पुत्रों ने क्या किया?' उनके लिए पांडू पुत्र 'मेरे जन' नहीं है। यह धृतराष्ट्र का बड़ा दोष है। नाम तो है 'राष्ट्र का धारण करने वाला' पर वास्तव में वे राष्ट्र के विध्वंसक सिद्ध होते हैं। वे यदि चाहते और कुछ कठोरता पूर्वक अपने पुत्रों से बर्ताव करते, तो भारत राष्ट्र वैसा विखंडित और ध्वस्त नहीं हुआ होता, जैसा वह महाभारत युद्ध से हो गया।
जब धृतराष्ट्र सुनते हैं कि पांडवगण अपनी माता कुंती के साथ वारणावत नगर के लाक्षागृह में जलकर मर गए, तो अंदर ही अंदर वे बड़े प्रसन्न होते हैं, पर ऊपर से अपने को बड़ा दुखी दर्शाते हुए आंसू बहाते हैं। यह छल कपट धृतराष्ट्र के चरित्र की विशेषता है, जो आनुवांशिकता के रूप में उनके पुत्रों को प्राप्त दिखाई पड़ती है। वास्तव में वारणावत की योजना को धृतराष्ट्र का पोषण प्राप्त था। दुर्योधन जब उनसे कहता है कि हस्तिनापुरवासी पांडवों के पक्ष में हैं और युधिष्ठिर को राजा बनाना चाहते हैं, तो धृतराष्ट्र चिंता और शोक से आतुर हो जाते हैं। दुर्योधन कहता है (आदिपर्व, 141/23-24)-
स विस्रब्धः पाण्डुपत्रान् सह मात्रा प्रवासय।
वारणावतमद्यैव यथा यान्ति तथा कुरु।।
विनिद्रकरणं घोरं हृदि शल्यमिवार्पितम्।
शोकपावकमुद्भूतं कर्मणैतेन नाशय।।
-'पिताजी! आप पूर्ण निश्चिंत होकर पांडवों को उनकी माता के साथ वारणावत भेज दीजिए और ऐसी व्यवस्था कीजिए, जिससे वे आज ही चले जाएं। मेरे हृदय में कांटा सा चुभ रहा है, जो मुझे नींद नहीं लेने देता। शोक की आग प्रज्ज्वलित हो उठी है, आप (मेरे द्वारा प्रस्तावित) इस कार्य को पूरा करके मेरे हृदय की शौक अग्नि को बुझा दीजिए।'
धृतराष्ट्र इस पर राजी हो जाते हैं और समय देखकर पांडवों से कहते हैं (आदिपर्व, 142/7-10)-
अधीतानि च शास्त्राणि युष्माभिरिह कृत्स्नशः।
अस्त्राणि च तथा द्रोणाद् गौतमाच्च विशेषतः।।
इदमेवंगते ताताश्चिन्तयामि समन्ततः।
रक्षणे व्यवहारे च राज्यस्य सततं हिते।।
ममैते पुरुषा नित्यं कथयन्ति पुनःपुनः।
रमणीयतमं लोके नगरं वारणावतम्।।
ते ताता यदि मन्यध्वमुत्सवं वारणावते।
सगणाः सान्वयाश्चैव विहरध्वं यथामराः।।
ब्राह्मणेभ्यश्च रत्नानि गायकेभ्यश्च सर्वशः।
प्रयच्छध्वं यथाकामं देवा इव सुवर्चसः।।
किंचित् कालं विहृत्यैवमनुभूय परां मुदम्।
इदं वै हास्तिनपुरं सुखिनः पुनरेष्यथ।।
-'बेटा! तुम लोगों ने संपूर्ण शास्त्र पढ़ लिए। आचार्य द्रोण और कृप से अस्त्र शस्त्रों की भी विशेष रूप से शिक्षा प्राप्त कर ली। प्रिय पांडवों! ऐसी दशा में मैं एक बात सोच रहा हूं। सब ओर से राज्य की रक्षा, राजकीय व्यवहारों की रक्षा तथा राज्य के निरंतर हित साधने में लगे रहने वाले मेरे ये मंत्री लोग प्रतिदिन बारंबार कहते हैं कि वारणावत नगर संसार में सबसे अधिक सुंदर है। पुत्रों! यदि तुम लोग वारणावत नगर में उत्सव देखने जाना चाहो, तो अपने कुटुंम्बिंयों और सेवक वर्ग के साथ वहां जाकर देवताओं की भांति बिहार करो। ब्राह्मणों और गायकों को विशेष रूप से रत्न एवं धन दो तथा अत्यंत तेजस्वी देवताओं के समान कुछ काल तक वहां इच्छा अनुसार बिहार करते हुए परम सुख प्राप्त करो। तत्पश्चात पुनः सुख पूर्वक इस हस्तिनापुर नगर में ही चले आना।'
धृतराष्ट्र की छल भरी बातें पांडवगण न समझ सके हो ऐसी बात नहीं थी। युधिष्ठिर उसका रहस्य ताड गए थे, पर अपने को असहाय जानकर उन्होंने धृतराष्ट्र का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। वैशम्पायन महाभारत कथा सुनाते हुए जनमेजय से कहते हैं (आदिपर्व, 142/11)-
धृतराष्ट्रस्य तं काममनुबुध्य युधिष्ठिरः।
आत्मनश्चासहायत्वं तथेति प्रत्युवाच तम्।।
-'हे जनमेजय! युधिष्ठिर धृतराष्ट्र की उस इच्छा का रहस्य समझ गए, परंतु अपने को असहाय जानकर उन्होंने "बहुत अच्छा" कह कर उनकी बात मान।'
यही नहीं, विदुर को भी इस बात का ज्ञान था कि लाक्षागृह में पांडवों को दग्ध कर देने की योजना में धृतराष्ट्र का पूरा हाथ है। जब भीष्म पितामह कुंती सहित पांचों पांडवों के जीवित जल जाने के समाचार से शोकाकुल हो गए, तो विदुर ने रहस्योद्घाटन करते हुए भीष्म से कहा (आदिपर्व, 149/19)-
धृतराष्ट्रस्य शकुने राज्ञो दुर्योधनस्य च।
विनाशे पाण्डुपुत्राणां कृतो मतिविनिश्चयः।।
-'धृतराष्ट्र, शकुनी तथा राजा दुर्योधन का यह पक्का विचार हो गया था कि पांडवों को नष्ट कर दिया जाए।'
विदुर आगे कहते हैं, "तदनंतर लाक्षागृह में जाने पर जब दुर्योधन की आज्ञा से पुत्रों सहित कुंती को जला देने की योजना बन गई, तब मैंने एक भूमि खोदने वाले को बुलाकर भूगर्भ में गुफा सहित सुरंग खुदवाई और कुंती सहित पांडवों को घर में आग लगने से पहले ही निकाल लिया, अतः आप अपने मन में शोक को स्थान न दीजिए।'
और ये ही धृतराष्ट्र जो पांडवों को नष्ट कर देने पर तुले हुए हैं, जब दूतों ने लाक्षागृह में कुंती सहित पांडवों के जल मरने की खबर सुनते हैं, तो 'विललाप सुदुःखितः' अत्यंत दुख पूर्वक ब्लॉक करने लगते हैं। कैसा छल है धृतराष्ट्र के जीवन में! पांडवों के प्रति उनके बनावटी प्रेम का आखिर भंडाफोड़ हो ही जाता है। उनका यह भेदभाव 'मामकाः पाण्डवाश्चैव' इन शब्दों में प्रकट हो जाता है।
फिर मनुष्य की स्वार्थ अंधता तो देखिए! धृतराष्ट्र ने पांडवों को नष्ट कर देने में कोई कोर कसर नहीं रखी, फिर भी जब भीष्म पितामह के आहत होने का समाचार सुनते हैं, तो उनके मन में किसी अज्ञात कोने में युधिष्ठिर के धर्म प्रियता की आड़ में एक विचार उठता है 'कुरुक्षेत्र तो धर्म के क्षेत्र के नाम से प्रसिद्ध है। क्या युधिष्ठिर का धर्म भाव कुरुक्षेत्र में आकर न जगा होगा? धर्म भाव के जगने से युधिष्ठिर कभी कौरवों का नाश नहीं करना चाहेगा, क्योंकि आखिर वे सब उसके भाई ही तो हैं।' इसी कल्पना को दुर्बलता के इस क्षण में पोषित करते हुए महाराज धृतराष्ट्र संजय से वैसा प्रश्न करते हैं। भीष्म के पतन से कौरवों के दुर्बल पड़ जाने का लक्षण स्पष्ट हो गया है। धृतराष्ट्र के हृदय में घबराहट छा गई है। जीवन भर पांडवों से अन्याय करते हुए वे अब उनसे अपने प्रति न्यायोचित व्यवहार की आशा रखते हैं। तभी तो कुरुक्षेत्र को वे धर्म क्षेत्र के नाम से पुकारते हैं।
कुरुक्षेत्र का वर्णन
कुरुक्षेत्र का मैदान अभी भी विद्यमान है। कुरुक्षेत्र नामक नगर ही आजकल बस गया है और वहां जो मंदिर बना हुआ है, उसके संबंध में ऐसी मान्यता है कि वहीं पर भगवान कृष्ण ने अर्जुन को गीता सुनाई थी। पर इस बात में कहां तक सत्यता है, यह विचारणीय है। इतना कहा जा सकता है कि हस्तिनापुर के चारों ओर जो मैदान था, उसी को कुरुक्षेत्र के नाम से पुकारा जाता था। आज की दिल्ली इसी मैदान पर बसी है और जो दिल्ली का चिड़ियाघर है उसे हस्तिनापुर के किले के भाग में अवस्थित माना जाता है। प्राचीन, मध्य और अर्वाचीन युगों की कई बड़ी बड़ी लड़ाइयां इस मैदान पर लड़ी गई हैं। इसे पुराने जमाने में समर्थपंचकतीर्थ के नाम से भी पुकारा जाता था। महाभारत में कुरुक्षेत्र के विस्तार के संबंध में वर्णन आता है कि 'तरंन्तुक, अरंन्तुक, रामहृद (परशुराम कुंड) तथा मचक्रुक के बीच का जो भूभाग है, वही सुमंतपंचक एवं कुरुक्षेत्र है। उसे 'प्रजापत की उत्तर वेदी' भी कहते हैं।
इसका नाम कुरुक्षेत्र क्यों पड़ा? इस संबंध में एक आख्यायिका हमें महाभारत में प्राप्त होती है कि पहले अमित तेजस्वी बुद्धिमान राजर्षि प्रवर महात्मा कुरु ने इस क्षेत्र को बहुत वर्षों तक जोता था, इसलिए यह कुरुक्षेत्र के नाम से प्रसिद्ध हो गया। प्रश्न उठता है कि महाराज कुरु ने स्वयं अपने हाथों से इस क्षेत्र को क्यों जोता होगा? इस प्रश्न का जो उत्तर प्राप्त होता है, वही उस प्रश्न का भी उत्तर है कि कुरुक्षेत्र को धर्म क्षेत्र क्यों कहते हैं?
कहते हैं कि पूर्व काल में जब महाराज कुरु नित्य की भांति इस क्षेत्र को जोत रहे थे, तो इंद्र ने स्वर्ग से आकर इसका कारण पूछा, "राजन! इस महान उद्योग का क्या कारण है? आप किस अभिलाषा से यह भूमि जोत रहे हैं? कुरु ने उत्तर दिया, "शतक्रतो! जो मनुष्य इस क्षेत्र में मरेंगे, वह पुण्य आत्माओं के पाप रहित लोकों में जाएंगे।" इस पर इंद्र ने उनका उपहास किया, पर राजर्षि कुरु उस कार्य से उदासीन न होकर वहां की भूमि जोतते ही रहे। देवराज इंद्र बार-बार अपने कार्य से विरत न होने वाले कुरु के पास आते और उनसे पूछ पूछ कर प्रत्येक बार उनकी हंसी उड़ा कर स्वर्ग लोक में चले जाते। पर जब इंद्र ने देखा कि राजा कुरु अपने प्रयत्नों में शिथिलता लाने के बदले और भी कठोर तपस्या पूर्वक पृथ्वी को जोतते ही जा रहे हैं, तो उन्होंने यह बात देवताओं से कहीं। देवताओं ने इंद्र से कहा, "शक्र! यदि संभव हो तो राजर्षि कुरु को वर देकर अपने अनुकूल किया जाए। यदि कुरु की तपस्या सफल हुई, तो इस क्षेत्र में मरने वाले मनुष्य यज्ञों द्वारा हम देवताओं का पूजन किए बिना ही स्वर्ग लोक में चले जाएंगे, तब तो हम लोग बड़ी आफत में पडेगे, हम लोगों का यज्ञ भाग सर्वथा नष्ट हो जाएगा।"
देवताओं से सलाह कर इंद्र राजर्षि कुरु के पास आए और उनसे कहा, "नरेश्वर! आप व्यर्थ कष्ट क्यों उठाते हैं? मेरी बात मान लीजिए। महामते! जो मनुष्य और पशु पक्षी यहां तपस्या करते हुए और निराहार रह कर देंह त्याग करेंगे अथवा युद्ध में मारे जाएंगे, वे स्वर्ग लोक के भागी होंगे।" जब राजा ने उनकी यह बात स्वीकार कर ली, तो इंद्र प्रसन्नचित्त हो स्वर्ग लौट गये।
इसलिए कुरुक्षेत्र को धर्म क्षेत्र कहा गया है। महाभारत में आता है कि 'यहां पर प्राचीन काल में महान वरदायक देवताओं ने बहुत बड़े यज्ञ का अनुष्ठान किया था। .... भूतल का कोई भी स्थान इससे बढ़कर पुण्यदायक नहीं होगा। जो मनुष्य यहां रहकर बड़ी भारी तपस्या करेंगे, वह सब लोग देह त्याग के पश्चात ब्रह्म लोक में जाएंगे। जो पुण्यात्मा यहां दान देंगे, उनका वह दान शीघ्र ही सहस्रगुना गुना हो जाएगा। जो मानव शुभ की इच्छा रख कर यहां नित्य निवास करेंगे, उन्हें कभी यम का राज्य नहीं देखना पड़ेगा। यह महान पुण्यप्रद, कल्याणकारी, देवताओं का प्रिय एवं सर्वगुण संपन्न तीर्थ है। अतः यहां रणभूमि मारे गए संपूर्ण नरेश सदा पुण्यमयी अक्षय गति प्राप्त करेंगे।'
जाबाल श्रुति में कुरुक्षेत्र को समस्त जीवो को ब्रह्म की प्राप्ति कराने वाला कहा है। शतपथ श्रुति इसे 'देवताओं की यज्ञ भूमि' कहती है।
संजय भगवान का अनन्य भक्त
कुरुक्षेत्र में ऐसे धर्म क्षेत्र में युद्ध करने की इच्छा से इकट्ठा हो कौरवों और पांडवों ने क्या किया यह धृतराष्ट्र का प्रश्न है। वह जानना चाहते हैं कि युद्ध का प्रारंभ किस प्रकार हुआ। हम ऊपर कह चुके हैं कि संजय राजा धृतराष्ट्र के विश्वासपात्र आमात्य हैं। यद्यपि संजय कौरवों के साथ हैं और उनका भला चाहते हैं, तथापि वे मानते हैं कि पांडवों का पक्ष ही न्याय का पक्ष है और वह घोषणा करते हैं कि जीत न्याय की ही होगी। वे धृतराष्ट्र को समय समय पर उचित सलाह देते हैं, पर यह कौरवों का दुर्भाग्य है कि धृतराष्ट्र उस सलाह पर चल नहीं पाते। संजय को गवल्गण नामक सूत का पुत्र बतलाया गया है और उन्हें मुनियों के समान ज्ञानी और धर्मात्मा माना गया है। इसी बात से उनकी महत्ता का बोध होता है कि भगवान श्रीकृष्ण अपने जिस विभूतिमय रूप को अर्जुन के सिवा और किसी से देखा जाना संभव नहीं मानते, उस अपूर्व रूप के दृष्टा संजय भी है। श्री कृष्ण गीता के 11 अध्याय में अर्जुन से कहते हैं (48,53)-
न वेदयज्ञाध्ययनैर्न दानै
र्न च क्रियाभिर्न तपोभिरुग्रैः।
एवंरूपः शक्य अहं नृलोके
द्रष्टुं त्वदन्येन कुरुप्रवीर।।
-'हे कुरुप्रवीर! न तो वेदों के अध्ययन से, न यज्ञ से, न दान से, न क्रिया अनुष्ठानों से, न कठोर तप से मेरा ऐसा रूप इस मनुष्य लोक में तेरे सिवा अन्य किसी के द्वारा देखा जाना संभव है। न तो वेदों के बल पर, न तपस्या और न दान या यज्ञ के ही बल पर कोई मुझे इस प्रकार देख सकता है, जैसा तूने मुझे देखा है।'
तब प्रश्न उठता है कि एकमात्र अर्जुन ने ही कैसे भगवान के इस रूप को देखा? अर्जुन की क्या पात्रता थी? श्री भगवान स्वयं इसका उत्तर देते हैं (11/54)-
भक्त्या त्वनन्यया शक्य अहमेवंविधोऽर्जुन।
ज्ञातुं द्रष्टुं च तत्त्वेन प्रवेष्टुं च परंतप।।
-'किंतु हे परंतप अर्जुन! अनन्य भक्ति के द्वारा मेरे इस चतुर्भुज रूप को प्रत्यक्ष देखना, तत्व से जानना और उसमें प्रवेश करना अर्थात उसमें एकीभाव से प्राप्त हो जाना शक्य है।'
अर्जुन के समान संजय जी श्री भगवान के विश्वरूप और चतुर्भुज रूप दोनों को देखने में समर्थ हुए थे। जिसे भगवान ने केवल अर्जुन के लिए शक्य माना, वह संजय के लिए भी शक्य हुआ था। इसका तात्पर्य यही है कि संजय भी श्री भगवान के अनन्य भक्तों में से थे। अथवा यदि यह कहें कि संजय में भी अर्जुन के ही समान भगवान के उन अलभ्य रूपों को देखने की पात्रता थी, तो यह कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।
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