श्मशान वैराग्य
अर्जुन क्षणिक वैराग्य के आवेश में आकर संसार को छोड़ने की बात कहने लगा था, पर श्रीकृष्ण उसे समझा देना चाहते हैं कि ऐसा वैराग्य अधिक देर तक नहीं टिकता, श्रीरामकृष्णदेव कहते थे, जैसे गर्म तवे पर एक बूंद जल गिरे, तो छन् से वह भाप बनकर उड़ जाता है, पर उसी प्रकार संसारी व्यक्तियों का वैराग्य होता है। वह एक क्षण ही टिकता है और दूसरे क्षण 'छन्' से उड़ जाता है। इस प्रकार के बैराग्य को शास्त्रों में 'श्मशान वैराग्य' या 'मर्कट वैराग्य' कह कर पुकारा है। जैसे जब हमारा कोई प्रियजन काल-कवलित होता है, तो श्मशान में उसे चिता में जलते देख हमारा मन विषाद से भर जाता है। उस समय जगत मिथ्या प्रतीत होता है, संसार असार लगता है और हमें सब कुछ फीका फीका मालूम पड़ता है। ऐसी अवस्था में यदि दुख का आवेश कुछ अधिक हो जाए, तो हम इस संसार को छोड़कर भाग जाने की ही बात सोच सकते हैं। यह सब श्मशान या मर्कट वैराग्य की श्रेणी में आता है।
किसी का घर में किसी से झगड़ा हो गया और वह गुस्से में आकर घर छोड़कर चला गया। चिट्ठी में लिख गया कि मैं घर से तंग आ गया हूं इसलिए साधु बनने हिमालय की ओर जा रहा हूं। चिट्ठी पाकर घर के लोग रोने पीटने लग गए। स्त्री बड़ी विकल हो गई, माता-पिता सिर धुनने लगे। सभी और उसे खोजने के लिए आदमी भेजे गए, पर वह ना मिला। अकस्मात कुछ महीने बाद एक दिन काशी से उसकी चिट्ठी आ गई 'तुम लोग चिंता मत करो, मैं मजे में हूं। मुझे नौकरी लग गई है। थोड़े ही दिनों में छुट्टी लेकर आ रहा हूं।' यहां श्मशान वैराग्य का ही उदाहरण है। हम भी कभी-कभी संसार की परिस्थितियों से घबराकर सब कुछ छोड़ देने की सोचते हैं। अर्जुन ने भी ऐसा ही सोचा था। पर कृष्ण इस प्रवृत्ति को नष्ट कर देने के लिए कहते हैं। वह तो एक ही बात अर्जुन से कहते हैं, "युध्यस्व" -अर्जुन! तू युद्ध कर।
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