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वैदिक कर्मकाण्ड और ज्ञानकांड

वैदिक कर्मकाण्ड और ज्ञानकांड

     इन देवताओं को किस प्रकार प्रसन्न किया जाय? आदिम मानव ने देखा कि जहां आग लगती है वहां धुआं ऊपर की ओर उठता है और आकाश में विलीन हो जाता है। उसने सोचा कि हमारे लोग के ऊपर एक देवलोक है जहां देवता रहते हैं। उसने कल्पना की इस धुएं के सहारे स्वर्ग के देवताओं से अपना संबंध स्थापित किया जा सकता है। और उन्हें अपना संदेश भेजा जा सकता है। इस प्रकार आहुतियों का जन्म होता है। मनुष्य कल्पना करता है कि वह अग्नि, वरुण, मारुत इत्यादि के लिए आहुतियां डालकर उन्हें प्रसन्न कर लेगा। वह कहता है - 'हे धूम्र शिखा तुम ऊपर जाओ और अग्नि को हमारा यह संदेश दो कि हम अग्नि का सत्कार करते हैं हमें जो वस्तुएं प्रिय लगती हैं जो सोम हमारे जीवन को पुष्ट बनाता है, उसे हम अग्नि के लिए समर्पित करते हैं। यहां प्रियतर वस्तुओं की आहुति दे कर देवताओं को प्रसन्न करने का भाव दिखाई देता है। बाद में आहुतियों की विधि पर व्यापक और विस्तार पूर्वक विचार किया गया। सोचा गया कि यज्ञ कुंड किस प्रकार के हैं? उनमें किस प्रकार से और कितनी सीटें लगाई जाएं? उन्हें किस दिशा में बनाया जाए? इत्यादि।
इस तरह कर्मकांड का प्रादुर्भाव होता है। मनुष्य सोचता है कि देवता स्वर्ग में रहते हैं तथा उन्हें आहुतियां देकर संतुष्ट किया जा सकता है। देवताओं के संतुष्ट होने पर उसे भी मरने के बाद स्वर्ग में स्थान प्राप्त हो सकता है। स्वर्ग ऐसा लोक है जहां सभी प्रकार के सुख हैं, पर दुख का नितांत अभाव है, संसार में तो सुख के साथ दुख भी भोगना पड़ता है। बल्कि यूं कहें कि सुख की तुलना में दुख ही अधिक भोगना पड़ता है। मनुष्य दुख विरहित सुख की चाह रखता है। इसलिए वह स्वर्ग की कल्पना करता है और उसकी प्राप्ति के लिए विभिन्न यज्ञों का आविष्कार करता है। फिर स्वर्ग की भी कई श्रेणियां बन जाती हैं , और उनकी प्राप्त के लिए बहु विधि क्रिया अनुष्ठानों का प्रचार होता है। कालांतर में बलि और क्रिया अनुष्ठान यज्ञों के अनिवार्य अंग बन जाते हैं। और कर्मकांड अति जटिल रूप धारण कर लेता है। यज्ञ के धुएं से भारत का आकाश छा जाता है और पपशु बलि के रक्त से धरा सन जाती है। इस प्रकार हम देखते हैं कि मानव मन में प्रकृति की शक्तियों के पीछे अधिष्ठाता देवताओं की कल्पना की। देवताओं को स्वर्ग का निवासी बनाया और देवताओं को प्रसन्न करने हेतु विभिन्न जटिल यज्ञों का आविष्कार किया ।
    पर तब तक समाज में ऐसे भी लोग जन्म ले चुके थे। जो चिंतक किस्म के थे। यह लोग बुद्धि और तर्क पर अधिक जोर देते थे। उनकी प्रवृत्ति वैज्ञानिक थी, और यह किसी भी बात को तब तक मानने के लिए तैयार न थे, जब तक युक्ति की कसौटी पर वह खरी ना उतर जाए। उन्होंने विचार किया कि आखिर यह स्वर्ग क्या है? क्या यह शाश्वत है? और हमें चिरकालिक सुख दे सकेंगे। उन्होंने तर्क किया कि स्वर्ग तो यज्ञ आदि कर्मों के फलस्वरूप प्राप्त होते हैं। कर्म अपने आप में सीमित होते हैं और सीमित कर्म का असीम फल कैसे प्राप्त हो सकता है? इस लिए उन विचारक किस्म के लोगों ने फटकार कर कहा-
परीक्ष्य लोकान् कर्मचितान् ब्राम्हणो
निर्वेदमायात् नास्ति अकृतं कृतेन ।
तद्विज्ञानार्थं स गुरुमेवाभिगच्छेत्
समित्पाणिः श्रोत्रियं ब्रह्मनिष्ठम् ।। (मुण्डक उपनिषद्)1/2/12
'कर्म से प्राप्त लोकों की परीक्षा करके ब्राह्मण को कर्मों से वीतराग हो जाना चाहिए, क्योंकि कृत (सीमित और अनित्य) से अकृत (असीम और नित्य) नहीं मिल सकता। यदि उसे असीम और नित्य को जानने की इच्छा है, तो वह समित्पाणि होकर श्रोत्रिय ब्रह्मनिष्ठ गुरु के पास विधिपूर्वक जाए।
यहां ब्राह्मण का तात्पर्य ब्राह्मण कुल में जन्म लेने वाले व्यक्ति से नहीं है बल्कि इसका तात्पर्य है कि "ब्रह्म का खोजी"। जो ब्रह्म को खोजता है सत्य का अन्वेषण करता है वह एक बार कर्मों से प्राप्त लोगों की परीक्षा तो करके देखें। इस प्रकार चिंतकों ने देखा कि स्वर्ग भी अपने कारण रूप यज्ञों के समान ही विनाशी और अनित्य है। स्वर्ग में सदा के लिए रहना संभव नहीं है। यह गणित का एक सामान्य सिद्धांत है, कि यदि किसी संचित वस्तु का लगातार व्यय किया जाए तो एक दिन ऐसा भी आता है जब वह वस्तु समाप्त हो जाती है यदि बैंक में धन जमा है तो उसे तभी तक चेक के द्वारा भुनाया जा सकता है जब तक वह समाप्त नहीं हो जाता। जब सारा पैसा खत्म हो जाता है, तब चेक वापस लौट आता है। यज्ञों द्वारा प्राप्त पुण्य मानो बैंक में संचित धन के समान है, इस पुण्य के बल पर हम स्वर्ग जाते हैं और पुण्य क्षीण होने पर वापस आ जाते हैं।
अतः ऐसे क्षणभंगुर स्वर्ग के कल्पना के विचारकों को प्रभावित न कर सकी। यह तो जीवन के सत्य को जानने के लिए आकुल थे। विभिन्न प्रयोगों के बाद उन्होंने देखा कि इस वाह्य संसार में सत्य को खोजना निष्फल है क्योंकि बाहर सब कुछ क्षणभंगुर है। विनाशी है, सीमित है, सत्य तो वह है जो शाश्वत है अविनाशी है असीम है। अतः क्षणभंगुर विनाशी और सीमित के सहारे शाश्वतं, अविनाशी और असीम का अनुसंधान कैसे किया जा सकता है? उन्होंने एक नई प्रक्रिया पर विचार किया उन्होंने स्वयं अपने आप को खोज का विषय बनाया जिस मन के सहारे अपने से बाहर का सारा संसार जाना जाता है। उसी मन को अनुसंधान का केंद्र बनाया और एक दिन उन्होंने सत्य को जान लिया-
ते ध्यानयोगानुगता अपश्यन्
देहात् शक्तिं स्वगुणैर्निगूढाम् । (श्वेताश्वतर उपनिषद्)1/3
'उन्होंने ध्यान योग के अनुगत हो कर (मन को ही खोज का विषय बनाकर) अपने गुणों में निहित ब्रह्म की शक्ति को देख लिया।' इस प्रकार जगत की कारणीभूत उस महाशक्ति को जानकर हर्षोल्लसित कण्ठ से वे पुकार उठे-
श्रृण्वन्तु विश्वे अमृतस्य पुत्रा
आ ये धामानि दिव्यानि तस्थुः।
वेदाहमेतं पुरुषं महान्तम्
आदित्यवर्णं तमसः परस्तात्।
तमेव विदित्वा अतिमृत्युमेति
नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय ।।(श्वेताश्वतरोपनिषत्)2/5,3/8
'अहो विश्व के निवासियों! अमृत के पुत्रों! सुनो दिव्य लोकों में रहने वाले देवताओं, तुम लोग भी सुनो। मैंने  सूर्य के समान चमकीले उस महान पुरुष को जान लिया है, जो समस्त अज्ञान अंधकार से परे है। केवल उसी को जानकर मृत्यु की विभीषिका को पार किया जा सकता है। इससे भिन्न दूसरा रास्ता है ही नहीं।'
  यज्ञ के द्वारा हम मृत्यु की खाई को पार नहीं कर सकते। केवल सत्य का ज्ञान ही मृत्यु के चक्र को काट सकता है। इस प्रकार यह चिंतक सत्य के दृष्टा बन गए, ऋषि बन जाए और उन्होंने कर्म के झमेले में पढ़ने वाले लोगों को धिक्कारा। स्वर्ग प्राप्त करने की कामना से यज्ञ करने वालों को उन्होंने स्वार्थी कहा मूर्ख कहा-
प्लवा हि एते अदृढा यज्ञरूपा
अष्टादशोक्तम् अवरं येषु कर्मं ।
एतत् श्रेयो येऽभिनन्दन्ति मूढा
जरामृत्युं ते पुनरेवापि यन्ति ।।(मुण्डक उपनिषद्)1/2/5
'अरे मूर्खों! अगर तुमने यज्ञ को भवसागर तरने की नौका माना है, तो बड़ी भूल में हो। यह यज्ञ रूपी नौका तो जीर्ण शीर्ण है। पता नहीं, कहां जाकर तुम्हें डुबो देगी। इस यज्ञ रूपी नौका में जो 16 ऋत्विज और यजमान एवं यजमान की पत्नी ऐसे 18 लोग बैठे हैं, वह सब नीच कर्म करने वाले हैं और सब के सब मझधार में डूबेगें। जो मूढ इस यज्ञ को कल्याणकारी मानते हैं वह बुढ़ापा और मृत्यु के फन्दे में बारंबार फसते हैं।'
यह एक नया स्वर वेदों में सुनाई पड़ता है। यह सत्यद्रष्टा का स्वर है जो सांसारिक सुख नहीं चाहता, जो शाश्वत की चाह रखता है। इस स्वर में आकर्षण है और लोग ऐसे विचारकों और सत्यद्रष्टा ऋषियों के पीछे आने लगते है। ये ज्ञानमार्गी कहलाते हैं और कर्म की निंदा करते हैं। यह जीवन के मूलभूत प्रश्नों पर विचार करते हैं इनमें निर्लिप्त होने की अजीब क्षमता है। संसार के आकर्षण इनके लिए सत्य के आकर्षण के समक्ष फीके पड़ जाते हैं। वेदों में इनके विचार उपनिषदों के नाम से प्रसिद्ध है। यह वेदांत के नाम से भी पुकारे जाते हैं। जहां पर वेद का, ज्ञान का अंत हो जाए, वह वेदांत है। इसी को वेदों का ज्ञानकांड भी कहा गया है।
कालांतर में वेदों के दो भागों में - कर्मकांड और ज्ञानकाण्ड में बड़ा झगड़ा मचता है। इससे भारत के समाज में विष फैलता है। कर्म और ज्ञान में समन्वय का प्रथम प्रयास ईशावास्योपनिषद द्वारा किया गया जाता है। वहां यह बताया जाता है कि यद्यपि ज्ञान ही शक्ति की चरम अवस्था है, तथापि उस ज्ञान को प्राप्त करने के लिए मनुष्य एकबारगी अपने स्वार्थों को, अपनी दुर्बलता ओं को झटक कर दूर नहीं फेंक सकता। यदि हम अपेक्षा करें कि मनुष्य एकदम अपनी वासनाओं का परित्याग कर सत्य की खोज के लिए लग जाए, तो यह भूल है। स्वार्थी मनुष्य धीरे-धीरे ही सत्य की ओर उन्मुख होता है। स्वार्थ युक्त कर्म से क्रमशः वह निस्वार्थ कर्म करना सीखेगा और इस प्रकार ज्ञान को धारण करने की योग्यता प्राप्त करेगा। ईशावास्योपनिषद में ज्ञान और कर्म के संबंधों का जो बीज दिखाई देता है वही अंकुरित और पल्लवित होकर भगवत्गीता में विशाल वटवृक्ष के रूप में परिवर्तित हो गया है। गीता ने मनुष्य के दुराग्रह को, उसकी हठवादिता को दूर करने का प्रयास किया है। समस्त कर्मों को छोड़ कर जंगल में जाने का भी प्रयोजन हो सकता है। जंगल में जाने से ही कर्म छूट नहीं जाते। असल में संसार हम से बाहर नहीं है, वह हमारे मन में है। जब तक मन संसार में लिपटा रहता है, तब तक किसी भी उपाय से संसार से छुटकारा नहीं मिल सकता। गीता हमें इसके लिए एक उपाय बताती हैं। वह हमें कर्मयोग रूपी ऐसा रसायन प्रदान करती है, जिससे हम संसार में रहकर भी उसके पाशों में नहीं बधते।

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