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युगाचार्य भगवान कृष्ण

युगाचार्य भगवान कृष्ण

    महाभारत कालीन समाज में हम इसी विरोध का स्वर सुन पाते हैं। श्रेय और प्रेय की यह दो विचारधाराएं आपस में जोरों से टकराती है। होना तो यह था कि यह दोनों विचारधारायें परस्पर समन्वित होकर मनुष्य को ऊपर उठाती, पर इसके स्थान पर दोनों में लड़ाई ठन जाती है। वेदों के अर्थ में खींचतान की जाती है। तब, "यस्य निःश्वसितं वेदा यो वेदेभ्योऽखिलं जगत्" - जिन भगवान ने वेदों को निःश्वसित किया और वेदों के आधार पर अखिल जगत की रचना की वह इस खींचतान को सहने में असमर्थ होकर मनुष्य के रूप में अवतीर्ण होते हैं। जब वह देखते हैं कि वेदों के अर्थ का अनर्थ हो रहा है, तब वह आते हैं और अनर्थ को दूर करने के लिए और अर्थ को प्रतिष्ठित करने के लिए। वे आते हैं कृष्ण के रूप में और गीता के माध्यम से वेदों के मर्म का गायन करके चले जाते हैं। अन्य लोग तो वेद पर भाष्य से लिखते हैं, पर भगवान को भाष्य नहीं लिखना पड़ा, वह तो गायन करते हैं। लेखन में प्रयास होता है, और गायन में अनुभूति का उच्छ्वास। गीता भगवान कृष्ण की अनुभूति का उच्छ्वास है। वेदों पर अनेक भाष्य और टीकाएं मिलती हैं, पर मैं गीता को वेदों कि सर्वोत्तम टीका कहता हूं।
    भगवान कृष्ण युगाचार्य थे। जो युगाचार्य होते हैं, वह युग की मान्यता के अनुरूप एक नया मार्ग, एक नया उपाय जनता के सामने रखते हैं। हमने कहा कि उस समय यज्ञों का बोलबाला था। ऐसा माना जाता था कि यज्ञ करने से जब तक जीवन यापन करेंगे, तब तक धनधान्य की किसी प्रकार की कमी नहीं होगी और मृत्यु के उपरांत स्वर्ग की प्राप्ति होगी। किंतु यह यज्ञ एक ऐसा उपाय था, जो गरीबों की पहुंच के बाहर था। जो व्यक्ति निर्धन है जिसके अन्न वस्त्र का कहीं कोई ठिकाना नहीं है ऐसा व्यक्ति भला यज्ञ जैसे व्यय- साध्य कार्य को कैसे कर सकता है? तब तो, जो यज्ञ नहीं कर सकता वह देवताओं को प्रसन्न भी नहीं कर सकता। तात्पर्य यह कि वह देवताओं की कृपा से वंचित रहेगा। यह बड़ी अनुचित और गलत बात थी। यह बात कृष्ण को गवारा नहीं थी। कि जो धनी है वही यज्ञ कर सकता है और फलस्वरूप स्वर्ग का और भू संपदा का अधिकारी हो सकता है, तथा निर्धन व्यक्ति यज्ञ ना कर सकने के कारण भौतिक सुखों और स्वर्ग से वंचित रह जाता है। इसीलिए कृष्ण गीता में एक ऐसा उपाय बताते हैं जो धनी और निर्धन दोनों के लिए समान रूप से उपादेय हैं। उस युग में यज्ञ की मान्यता थी इसलिए कृष्ण ने 'यज्ञ' शब्द का प्रयोग तो किया पर उन्होंने उस शब्द को एक नया अर्थ प्रदान किया। युगाचार्य ऐसा ही कार्य करते हैं। वह शब्द तो ग्रहण करते हैं पर उसके अर्थ को युग के अनुरूप बदल देते हैं। श्री रामकृष्ण परमहंस कहा करते थे कि बादशाही अमल का सिक्का अंग्रेजी राज में नहीं चलता। यह छोटी सी बात प्रतीत होती है पर इसमें गूढ़ अर्थ भरा हुआ है। बादशाही अमल का सिक्का होता तो सोने का है और सोने के रूप में उसकी कीमत भी होती है, पर वह अंग्रेजी राज में नहीं चलता। अंग्रेजी राज में चलाने के लिए बादशाही अमल के सिक्कों को गलाना पड़ता है और उसमें अंग्रेजी राज की मोहर लगानी पड़ती है। यद्यपि सोने में कोई फर्क नहीं होता पर उसके बाहरी रूप में जरूर फर्क होता है। यदि एक युग के सिक्के को बिना उसका बाहरी रूप बदले दूसरे युग में चलाने की कोशिश की जाएगी, तो वह 'डिफक्ट' हो जाएगा, खोटा हो जाएगा।
    इसी प्रकार जो शाश्वत तत्व होते हैं, उनका ऊपरी रूप भी कॉल प्रवाह में खोटा हो जाता है। तब ऐसे महापुरुष और युगाचार्य आते हैं, जो उन तत्वों को गलाते हैं और उनके बाहरी रूप को बदलकर युग के अनुरूप उन्हें नया रूप प्रदान करते हैं। कृष्णा ने यही कार्य किया। उन्होंने यज्ञ रूपी सिक्के को गलाया और उसे युगानुरूप नया स्वरूप प्रदान किया। पहले यज्ञ का तात्पर्य आहुतियों और बलियों से लगाया जाता था। यज्ञ के नाम पर पशु बलि का बड़ा जोर था। श्रीकृष्ण ने जनता को इस कुरीति से छुटकारा प्रदान किया। उन्होंने यज्ञ का ही विरोध किया। भागवत में कथा आती है कि जब नंद बाबा इंद्र की पूजा के लिए यज्ञ का विधान करते हैं तब कृष्ण इसका विरोध करते हैं। नन्द उन्हें समझाते हैं कि यदि इंद्र को आहुति नहीं दी जाएगी तो वह कुपित हो जाएंगे, उनके कोप से हमें भयंकर परेशानियां सहनी पड़ेगी, इंद्र कुपित होकर हमारे धन का नाश भी कर देंगे, परंपरा से इंद्र को यज्ञ का भाग दिया जाता रहा है। और हमारे लिए यही उचित है कि हम इस परंपरा को ना तोड़े। पर कृष्ण परंपरा के विरोध में खड़े होते हैं। वह कहते हैं कि जो इंद्र दिखाई नहीं देता उसकी भला क्यों पूजा की जाए। इंद्र की पूजा करने से बेहतर तो गोवर्धन की पूजा करना है। गोवर्धन हमारी आंखों से दिखता तो है पर पर्वत हमारी गायों को चारा देता है और हमारी भूमि पर वर्षा कराता है। इसलिए हम सब मिलकर इस गोवर्धन की पूजा क्यों न करें, इसी की उपासना क्यों न करें?  कृष्ण परंपरा पर कुठाराघात कर गोवर्धन पूजा का आयोजन करते हैं। भागवत के इस प्रश्न के मूल में यही अर्थ है कि कृष्ण क्रांतिकारी महापुरुष और युगाचार्य है। एक नया मार्ग प्रदर्शित करने के लिए आते हैं और गीता के रूप में अपना अमर उपदेश प्रदान कर जाते हैं।

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