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आभ्यन्तर परिवर्तन से ही शान्ति

आभ्यन्तर परिवर्तन से ही शान्ति


     गीता का अभिप्राय है कि बाहरी कारणों में, बाहरी परिस्थितियों में परिवर्तन मात्र करने से मनुष्य को शांति नहीं मिला करती। परिवर्तन तो हमें भीतर में, अभ्यांतर में करना पड़ेगा। मनुष्य को अपने मन में परिवर्तन लाना होगा, उसे अपनी दृष्टि बदलनी होगी। तभी वह शांति का अधिकारी हो सकता है। स्थान या परिस्थितियों में परिवर्तन करने मात्र से हमारे संस्कार परिवर्तित नहीं हो जाते। किसी निभृत गिरि गुफा में जाकर बैठ जाने मात्र से हमारे मन के संस्कार नष्ट नहीं हो जाते। हम जहां भी जाएंगे हमारा मन भी हमारे साथ जाएगा। बाहर के संसार का त्याग भले ही हम कर दें, पर भीतर का संसार तो हमारे अंदर सदा सर्वदा बना ही हुआ है। इसलिए हम जंगल में जाकर अपना एक नया संसार खड़ा कर लेते हैं। जंगल में जाना कोई बुरी बात नहीं, वहां जाकर तपस्या और साधना करना गलत बात नहीं, पर प्रश्न यह है कि क्या हम जंगल जाने के अधिकारी हैं? क्या हम जंगल जाकर साधना में समय बिता सकेंगे? हम वन में कहीं एक नया संसार तो निर्मित न कर लेंगे?
     श्रीकृष्ण ने जंगल जाने की बात को बुरा नहीं कहा। अर्जुन ने कुल नाश से होने वाले दोष गिनाए, उनको कृष्ण ने नहीं काटा। इसका तात्पर्य यह है कि सिद्धांत की दृष्टि से अर्जुन कोई गलत बात नहीं कर रहा था, पर उस सिद्धांत का जैसा व्यवहार जीवन में होना चाहिए अर्जुन उसमें भूल कर रहा था। सिद्धांत तो अच्छे ही होते हैं। बुराई उनके क्रियान्वयन की भूल से पैदा होती है। बुद्धिमान व्यक्ति वह है, जो इस भूल को पहचान लेता है। अर्जुन अपनी इस भूल को पहचान ले इसी उद्देश्य से भगवान श्रीकृष्ण उससे कहते हैं- 'प्रज्ञावादांश्च भाषसे' तू पंडितों के ऐसे वचन कहता है। मतलब, तू व्यवहार में पंडित के से आचरण तो नहीं करता, केवल शब्दों में पंडित बन रहा है।
     हम सब की समस्या भी यही है। हम अपने को पंडित तो दर्शाते हैं, पर जब अपने मन के दर्पण में अपनी तस्वीर देखते हैं तो वहां पांडित्य की बू तक नहीं दिखाती। यही हमारी अशांति का कारण है। जब तक हम अपने इस दोष को पकड़ नहीं लेंगे, तब तक कोई वनस्थली हमें शांति न दे सकेगी, कोई गुफा हमारी मानसिक हलचल को शांत न कर सकेगी, कोई तीर्थ हमारे विक्षोभ को धो ना सकेगा। श्रीरामकृष्णदेव इसी को 'मन और मुख का भेद' कहते हैं। वे बारंबार कहा करते थे "कलयुग की सबसे बड़ी साधना है मन और मुख को एक करना।" आधुनिक समाज और मुख के भेद से आक्रांत है। मन और मुख का यह विभेद ही मानसिक द्वन्द्वों की सृष्टि करता है। अर्जुन इसी मानव का प्रतिनिधित्व कर रहा है। तभी तो श्रीकृष्ण उसकी बातों को प्रज्ञावाद की संज्ञा देते हैं। वह अर्जुन को उसकी भूल पकड़ा देना चाहते हैं। भूल को दूर करने का एकमात्र उपाय है पहले उसे पकड़ लेना। जो सचमुच नींद में है उसे जगाना आसान है, पर जो सोने का ढोंग कर रहा है, उसे जगाना कठिन है। अधिकांशतः हम सोने का ढोंग करते हैं, इसलिए हमारे लिए जगना मुश्किल हो जाता है हमें अपने चरित्र के इस दोष को निकालना है।

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