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गीता का वास्तविक प्रयोजन : मोह - नाश


गीता का वास्तविक प्रयोजन : मोह - नाश

     गीता का वास्तविक प्रयोजन क्या है? यह प्रश्न हमारे सामने बारंबार आकर खड़ा हो जाता है। मान लिया कि ज्ञानयोग या भक्तियोग या कर्मयोग के सहारे आत्म साक्षात्कार या भगवान को पाने की बात गीता में लिखी है, पर किस विशेष उद्देश्य से गीता का गायन हुआ है, इसको समझने की आकांक्षा मनुष्य करता है। और यह बात गीता की भूमिका को देखकर स्पष्ट हो जाती है। अर्जुन युद्ध के लिए तैयार होकर आया था। उसने कौरवों की सेना को देखने की इच्छा की और इस हेतु श्रीकृष्ण से रथ को दोनों सेनाओं के बीच में ले जाकर रखने के लिए कहा। ज्योंही अर्जुन कौरवों की सेना को देखता है, त्योंही उसे जाने क्या हो जाता है और वह कहता है कि मैं युद्ध नहीं करूंगा। कौरवों की सेना देखकर कहता है- दृष्ट्वेमं स्वजनं कृष्ण' - हे कृष्ण! अपने स्वजनों को देखकर मेरे अंग शिथिल होते जा रहे हैं। यहां पर 'स्वजन' शब्द अत्यंत मनोवैज्ञानिक है। अर्जुन मानो कौरवों को नहीं देखता, बल्कि उनके बदले अपने रिश्तेदारों को देखता है और इसीलिए वह इस ममत्व से उपजे मोह का शिकार हो जाता है। इस मोह के कारण वह उल्टी सुल्टी बातें करने लगता है। एक और तो वह कौरवों को आततायी कहता है और दूसरी ओर कहता है कि इन आततायियों को मार कर हमें पाप ही हाथ लगेगा! यह मानो अर्जुन नहीं, उसका मोह बोल रहा है। जरा सोचिए तो, यह गांडीवधारी अर्जुन की कैसी दुर्दशा है! इस परीक्षा की घड़ी में उसके भीतर के दबे संस्कार अचानक उस पर धावा बोल देते हैं और वह मायूस हो जाता है। उसकी आंखों में अंधेरा छा जाता है और उसका कर्तव्य अकर्तव्य बोध लुप्त हो जाता है।
    हम पर भी ऐसे प्रसंगों में ऐसी ही बीता करती है। तब हमारा भी मन मोह और प्रमाद से घिर जाता है, बुद्धि सम्मोहित हो जाती है और दिशाएं हमारे लिए घटाटोप अंधकार से भर जाती हैं। हम अत्यंत व्याकुल हो जाते हैं। यही मोह की अवस्था है। यह मोह सब कुछ भुला देता है। अर्जुन इसी व्यामोह से आक्रांत हुआ था और भगवान कृष्ण गीता के माध्यम से इसी मोह को दूर करने का प्रयास करते हैं। तभी तो उन्होंने अंत में अर्जुन से पूछा-
कच्चिदेतच्छ्रुतं पार्थ त्वयैकाग्रेण चेतसा।
कच्चिदज्ञानसंमोहः प्रनष्टस्ते धनंजय।। (18/72)
    -'हे पार्थ! क्या तूने मेरी बात एकाग्र चित्त से सुनी? हे धनंजय! क्या तेरा अज्ञान से उत्पन्न हुआ मोह नष्ट हुआ?'
   अर्जुन इस प्रश्न का उत्तर देते हुए कहता है-
नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा त्वप्रसादान्मयाच्युत।
स्थितोऽस्मि गतसन्देहः करिष्ये वचनं तव।। (18/73)
   -'हे अच्युत! आपकी कृपा से मेरा मोह नष्ट हुआ है, और मुझे स्मृति प्राप्त हुई है। अब मैं संशय रहित हो गया हूं और मेरी बुद्धि स्थिर हो गई है। मैं आपकी आज्ञा का पालन करूंगा।'
    यहां पर हम देखते हैं कि अर्जुन का मोह नष्ट हुआ है। मोह के दूर होने से अर्जुन को स्मृति प्राप्त हुई है। इसका तात्पर्य यह है कि मोह जब चित्त में घुसता है, तब सर्वप्रथम हमारी स्मृति को ढक लेता है। हम भले और बुरे, उचित और अनुचित, कर्तव्य और अकर्तव्य का भेद भूल जाते हैं, अतः जीवन के द्वन्द्वों के शिकार होते हैं। श्री भगवान गीता के माध्यम से इस मोह को दूर करना चाहते हैं ताकि अर्जुन अपने स्वरूप में प्रतिष्ठित हो जाए और जान ले कि उसका कर्तव्य क्या है।
     तो हम कह रहे थे कि मोह का निरसन ही गीता का प्रयोजन है। कर्मयोग, भक्तियोग, ज्ञानयोग आदि की बातें भी गीता में हैं, पर इन सब योगों की सार्थकता भी मोह के दूर करने में ही है। मोह नाश गीता का मूल स्वर है। जैसे शहनाई के वादन में एक मूल स्वर बजता है और उस मूल स्वर को आश्रित करके भिन्न-भिन्न प्रकार की स्वर लहरियां उत्पन्न की जाती है, उसी प्रकार मोह नाशरूपी मूल स्वर को आश्रित करके विभिन्न योगों की चर्चा गीता में की गई है।
    हमने पहले कहा कि मोह नाश से हमारी स्मृति लौट आती है और हम संशय रहित होकर निरुद्विग्न हो जाते हैं, हमारा मन शांत हो जाता है। मानव इस शांति की ही तो अथक खोज कर रहा है। उसकी समस्त क्रियाओं के पीछे इसी शांति का अनुशीलन है। मनुष्य शांति पाने की कामना करता हुआ ही अर्थ उपार्जन करता है, परिवार का विस्तार करता है, पूजा-पाठ और अध्ययन स्वाध्याय करता है। पर खेद है कि शांति उससे दूर ही रहती है और मनुष्य भ्रमित हो जाता है। कुछ सोच नहीं पाता कि क्या करने से उसे शांति मिलेगी विचार करता है कि संभवत परिस्थितियों में परिवर्तन हो जाने से उसे सुख मिलेगा, स्थान के बदल जाने से उसे शांति मिलेगी। ठीक यही दशा अर्जुन की हुई थी। वह सोचता है कि युद्ध एक घोर कर्म है। वह विचार करता है कि इस युद्ध को छोड़कर जंगल चले जाने से उसे शांति मिलेगी। इसलिए वह श्री कृष्ण के संग वैराग्य और ज्ञान की बातें करता है। साथ ही तर्क द्वारा अपने कथन की पुष्टि भी करता जाता है। कहता है कि युद्ध से कुल का नाश होगा, कुल के नाश से सनातन धर्म नष्ट हो जाएंगे और धर्म का नाश होने पर समस्त कुल को पाप दबोच लेगा। पाप के अधिक बढ़ जाने से कुल की स्त्रियां दूषित हो जाएंगी और हे वार्ष्णेय! स्त्रियों के दूषित होने पर वर्णसंकर उत्पन्न हो जाएगा। वर्णसंकर तो कुलघातियों को और कुल को नर्क में ही ले जाने वाला साबित होगा। तब तो पिंड और तर्पण आदि क्रियाएं लुप्त हो जाएगी और फलस्वरूप इनके पितर लोग भी गिर जाएंगे।
     यहां पर अर्जुन का ज्ञान दर्शनीय है। इससे विदित होता है कि अर्जुन कुल नाश के दोषों का ज्ञाता है। वह पुनः कहता है, "वर्णसंकर को उत्पन्न करने वाले इन दोषों से कुलघातियों के सनातन जाति धर्म और कुल धर्म समस्त विनष्ट हो जाते हैं। हे जनार्दन! हमने सुना है कि जिन मनुष्यों का कुल धर्म नष्ट हो गया है, वह अनंत काल तक नर्क में वास करते हैं। अतएव  भले ही ये कौरवगण लोभ से भ्रष्ट चित्त होने के कारण कुल नाश से होने वाले दोष को तथा मित्रों के साथ विरोध करने में पाप को नहीं देख पा रहे हैं, परंतु हे जनार्दन! हम लोग जो कुल नाश के दोष को जानते हैं, क्यों ना इस पाप से हटने के लिए विचार करें?"
     और अंत में अपने वचनों का उपसंहार करते हुए अर्जुन अपनी अत्यंत दयनीयता को प्रकट करते हुए कहता है, "अहो! शोक है कि हम लोग बुद्धिमान होकर भी महान पाप करने को तैयार हुए हैं, जो कि राज्य और सुख के लोभ से अपने कुल को मारने के लिए उद्यत हुए हैं। यदि मुझ शस्त्ररहित, न सामना करने वाले को शस्त्रधारी धृतराष्ट्र के पुत्र रण में मारें, तो वह मरना भी मेरे लिए अति कल्याण कारक होगा।"
     ऐसा कह कर अर्जुन ने धनुष बाण त्याग दिया और रथ के पिछले भाग में शोक मग्न होकर बैठ गया। अर्जुन का चित्त मोहाविष्ट है, इसलिए उसका सोंचना और क्रियाएं करना- ये सभी उलटे हो रहे हैं। उसे कर्तव्य की दृष्टि से युद्ध करना चाहिए, पर वह युद्ध छोड़कर जंगल जाना चाहता है! जब कौरवों को वह आतताई मानता है, तो उसे उनका प्रतिकार करना चाहिए, पर कहता है कि आततायियों को मारकर पाप हाथ लगेगा! युद्ध से कुल नाश और तत्पश्चात पितरों के पतित होने की बात करता है, यह जानकर भी की युद्ध करना तो क्षत्रिय का स्वधर्म है। फिर अर्जुन यह भी जानता है कि वह लोभ और सुख की आकांक्षा से परिचालित होकर युद्ध नहीं कर रहा है, वह जानता है कि पांडव अपना न्याय पूर्ण अधिकार प्राप्त करना चाहते हैं। वह जानता है कि दुर्योधन युद्ध के बिना सुई की नोक बराबर भी जमीन पांडवों को नहीं देना चाहता है। इसके बावजूद वह कहता है कि हम लोभ और राज्य सुख के लिए कुल का नाश करने के लिए खड़े हैं।
     यही मोह की विचित्रता है। मोह से घिरकर ही अर्जुन सोचता है कि शांति मुझे यहां नहीं मिलने वाली है। वह जंगल जाने का विचार करता है। वह समझता है कि स्थान के परिवर्तन से उसका अवसाद दूर हो जाएगा। तब कृष्ण अर्जुन को जंगल जाने से रोकते हैं। कोई अर्जुन की करुणा को देखकर विचलित नहीं होते, ना ही वह प्रभावित होते हैं। वे भाप लेते हैं कि अर्जुन विकार रोग का शिकार हो गया है, इसलिए अण्ड-बण्ड बक रहा है। यदि अर्जुन के शब्दों को संदर्भ में से अलग हटाकर विचार के लिए ले, तो इसमें कोई बेतुकापन नहीं मालूम पड़ेगा, बल्कि लगेगा की बात तो ठीक ही है। परंतु जब हम वस्तु स्थिति का सामना करते हैं और तत्कालीन परिस्थितियों के संदर्भ में अर्जुन के शब्दों पर विचार करते हैं, तो सचमुच अर्जुन की बातें बेतुकी ही मालूम पड़ती हैं। श्रीकृष्ण को मनोवैज्ञानिक है, वे अर्जुन की कमजोरियों को भांप लेते हैं। वे अर्जुन को उचित औषधि प्रदान करते हैं और उसे युद्ध का त्याग करने से मना करते हैं।

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