गीता का प्रयोजन
पिछले भाग में हमने गीता के अनुबंध चतुष्टय के 'विषय' और 'अधिकारी' इन दो अनुबंधों पर विचार किया था। अब हम यह देखने का प्रयास करेंगे कि गीता की रचना किस उद्देश्य से हुई है। कुछ लोग कहा करते हैं कि अर्जुन के माध्यम से जीवो को आत्मज्ञान का पाठ पढ़ाने के लिए गीता कहीं गई। कुछ दूसरों का मत है कि भक्ति और शरणागति के माध्यम से, भगवत प्रसन्नता के द्वारा जीव के क्लेशों का निवारण ही गीता का प्रयोजन है। कुछ तीसरे इस मत के हैं कि गीता में कर्मयोग की बात विशेष तौर पर कही गई है। कुछ चौथे राजयोग को गीता का प्रतिपाद्य विषय मानते हैं। हमारी दृष्टि में यह सभी उत्तर ठीक हैं, क्योंकि गीता में इन सभी बातों का विवेचन प्रस्तुत किया गया है। गीता तो एक अथाह रत्नाकर है। रत्नाकर का- समुद्र का तल जाने कितने अनमोल रत्नों से भरा पड़ा है। गोताखोर अपनी अपनी सामर्थ्य के अनुसार समुद्र में गोते लगाते हैं और जो मोती हाथ लग जाता है, उसे लेकर ऊपर चले आते हैं। यथार्थ गोताखोर तो वह है, जो जानता है कि रत्नाकर तल अनगिनत मोतियों से भरा पड़ा है। भले ही उसे एक बहुत बड़ा मोती मिल जाए, पर वह ऐसा नहीं सोचेगा कि समुद्र में अब इससे बड़ा मोती नहीं है। गीता ऐसा ही रत्नाकर है। गीता में गोता लगाने वाले भी बहुत हैं। कुछ तो केवल नाम के गोताखोर होते हैं, वे पानी की सतह से अधिक नीचे नहीं जा पाते। कुछ इनकी अपेक्षा अधिक जानकार होते हैं, जो अधिक गहराई तक उतर जाते हैं, पर ये वापस लौटते समय हाथ में मोती के बदले सीपी और शंख लेकर निकल आते हैं। तीन चार बार प्रयास करने पर भी जब इन लोगों को मोती नहीं मिलता, तो वह ऐसी धारणा कर बैठते हैं कि समुद्र में मोती ही नहीं है, सागर का तल केवल सीपियों और शंखो से भरा है।
गीता रत्नाकर में गोता लगाने वालों के भी तीन प्रकार हैं। एक तो वह है जो ऊपर ऊपर तैरते हैं। इनकी दृष्टि सतही होती है। इसलिए ये गीता में राजनीति शास्त्र का विवेचन देखते हैं। इन्हीं में से कुछ दूसरे लोग गीता को अर्थशास्त्र का प्रतिपादन करने वाला ग्रंथ मानते हैं और कुछ अन्य लोग युद्ध शास्त्र को गीता का प्रतिपाद्य विषय मानते हैं। ये सभी के सभी तथाकथित गोताखोर हैं, जो वस्तुतः यही नहीं जानते कि गोता लगाना क्या होता है।
दूसरे लोग वह है जो गहराई में जाने की कोशिश तो करते हैं, पर अपने काम की कोई चीज उसमें नहीं पाते। वे जड़वादी होते हैं। भौतिकवाद ही उनके जीवन का आधार होता है, इसलिए गीता में उन्हें ऐसा कुछ दिखाई नहीं देता, जो उन्हें मदद दे सके। इसलिए गीता को वे कवि-कल्पना कह कर टाल देते हैं।
पर जो तीसरे प्रकार के लोग हैं, वह असली गोताखोर हैं। ये निरंतर गोता लगाते रहते हैं। श्रीरामकृष्ण देव की भाषा में यह 'असली किसान' हैं। 'नकली किसान' वह है, जो शौक के कारण खेती करता है। यदि एक-दो वर्ष अनावृष्टि या अतिवृष्टि से फसल नष्ट हुई, तो उसका शौक खत्म हो जाता है और वह किसानी छोड़ देता है। परंतु असली किसान विषम परिस्थिति में भी खेती का काम नहीं छोड़ता, चाहे लगातार वर्ष पर वर्ष अकाल क्यों न पड़ता रहे। गीता के संदर्भ में ऐसे असली गोताखोर निरंतर गीता सागर में अवगाहन करते रहते हैं, गोता लगाते रहते हैं, उसका मंथन करते रहते हैं। सागर के मंथन से अमृत भी मिलता है और गरल भी। अमृत तब मिलता है, जब मंथन करने वाला विवेकवती बुद्धि की मथानी लेकर मथता है। ऐसे लोगों को कोही गीता महात्म्य 'सुधी' कहा। पिछले भाग में हमने देखा कि ये सुधी लोग ही गीतरूपी दुग्धामृत को पीने के अधिकारी हैं। और मंथन से गरल कब मिलता है? जब व्यक्ति विद्वता की अभिलाषा लेकर उसे मथता है। ऐसे लोगों के संबंध में शंकराचार्य ने 'विवेक चूड़ामणि' ग्रंथ में लिखा है- (25)
वाग्वैखरी शब्दझरी शास्त्रव्याख्यानकौशलम्।
वैदुष्यं विदुषां तद्वद् भुक्तये न तु मुक्तये।।
-'जोरो से बोल बोल कर प्रवचन करना, शब्दों का प्रवाह बहा देना, शास्त्रों की कुशलता पूर्वक तरह तरह से व्याख्या करना, विद्वता का प्रदर्शन करना ये सब विद्वानों के उपभोग के लिए है, मुक्त के लिए नहीं।'
तो जो लोग सुधी हैं, जो गोता लगाते हैं, वे गीता से अमृत प्राप्त करते हैं, वे देखते हैं कि गीता में जो कुछ कहा गया है, वह जीव को लक्ष्य करके कहा गया है। गीता में जीवन के परम पुरुषार्थ को पाने के जो उपाय बताए गए हैं, वह मनुष्य की प्रकृति के कारण, उसके स्वभाव के कारण भिन्न-भिन्न हो जाते हैं। हर मनुष्य में तीन प्रकार की शक्तियां होती हैं। एक है विचार की शक्ति, दूसरी है भावना की और तीसरी है क्रिया की। विचार की शक्ति के द्वारा मनुष्य तर्क और चिंतन करता है। भावना की शक्ति के सहारे स्नेह और प्यार करता है और क्रिया की शक्ति के माध्यम से वह कर्म करता है। या यूं कह सकते हैं कि विचारशक्ति से वह जानता है, भावना शक्ति से वह मानता है और क्रियाशक्ति से वह करता है। प्रत्येक व्यक्ति ने इन तीनों शक्तियों में से किसी एक की प्रधानता होती है। जिसमें विचार शक्ति प्रधान है, वह ज्ञान का पथ चुनता है। जिसमें भावनाशक्ति की प्रधानता है, वह प्यार का रास्ता अपनाता है और जिसने क्रियाशक्ति का बाहुल्य है, उसे कर्म की राह पसंद आती है। जब हम तीनों शक्तियों को ईश्वर अभिमुखी ही कर देते हैं, तो पहला व्यक्ति ज्ञानयोगी हो जाता है, दूसरा भक्तियोगी और तीसरा कर्मयोगी। गीता में इन सभी व्यक्तियों के लिए पाथेय है।
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