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गीता का काल निर्णय

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गीता का काल निर्णय


    अब हम यह देखने की चेष्टा करेंगे कि गीता का गायन किस दिन हुआ था। परंपरा से गीता जयंती मार्गशीर्ष शुक्ल एकादशी को मनाई जाती है। मार्गशीर्ष को अग्रहायण या अगहन का महीना भी कहते हैं। महाभारत में कतिपय श्लोक हैं, जिनके द्वारा गीता प्रारंभ की तिथि के संबंध में अनुमान लगाया जाता है।
     सबसे पहले उस घटना का उल्लेख करें, जब जयद्रथ का वध होता है। यह घटना महाभारत युद्ध के 14वें दिन घटती है। प्रथम 10 दिन तक युद्ध करके भीष्म पितामह शरशय्याशायी होते हैं। तत्पश्चात द्रोणाचार्य कौरवों के सेनानायक बनते हैं और उनके सेनापतित्व के तीसरे दिन अभिमन्यु का वध होता है। अर्जुन जब जानता है कि जयद्रथ के छल से अभिमन्यु मारा गया है, तो वह दूसरे दिन सूर्यास्त के पूर्व तक जयद्रथ का वध करने की प्रतिज्ञा करता है। इस प्रकार युद्ध प्रारंभ से 14वें दिन अर्जुन ने जयद्रथ का वध कर अपनी प्रतिज्ञा का निर्वाह किया। उसी दिन द्रोणाचार्य में रात्रि युद्ध किया। सामान्यता सेनाएं संध्या के समय युद्ध से विरत हो जाती थी और दूसरे दिन सुबह प्रातः कृत्य के पश्चात पुनः युद्ध में लग जाती थी। यही उस समय युद्ध का नियम था। पर उस 14वें दिन इस नियम का पालन नहीं किया गया और रात्रि में भी युद्ध होता रहा। महाभारत में इस प्रसंग का वर्णन करते हुए कहा गया है (द्रोणवधपर्व, 184/23/24/26/28)
संसर्पन्तो रणे केचिन्निद्रान्धास्ते तथा परान्।
जघ्नुः शूरा रणे शूरांस्तस्मिंस्तमसि दारुणे।।
हन्यमानमथात्मानं परेभ्यो बहवो जनाः।
नाभ्यजानन्त समरे निद्रया मोहिता भृशम्।।
श्रान्ता भवन्तो निद्रान्धाः सर्व एव सवाहनाः।
तमसा च वृत्ते सैन्ये रजसा बहुलेन च।।
ते यूयं यदि मन्यध्वमुपारमत सैनिकाः।
निमीलयत चात्रैव रणभूमौ मुहूर्तकम्।।
ततो विनिद्रा विश्रान्ताश्चन्द्रमस्युदिते पुनः।
संसाधयिष्यथान्योन्यं संग्रामं कुरुपाण्डवाः।।
    -'कुछ शूरवीर निद्रान्ध होकर भी रणभूमि में विचरते थे और उस दारुण अंधकार में शत्रु पक्ष के शूरवीरों का वध कर डालते थे। बहुत से मनुष्य निद्रा से अत्यंत मोहित हो जाने के कारण शत्रुओं की ओर से समर भूमि में अपने को जो मारने की चेष्टा होती थी, उसे समझ ही नहीं पाते थे। (तब अर्जुन ने कहा) सैनिकों, तुम सब लोग अपने वाहनों सहित थक गए हो और नींद से अंधे हो रहे हो। इधर यह सारी सेना घोर अंधकार और बहुत सी धूल से ढक गई है। अतः यदि तुम ठीक समझो तो युद्ध बंद कर दो और दो घड़ी तक इस रणभूमि से में ही सो लो। तत्पश्चात चंद्रोदय होने पर, विश्राम करने के अनंतर निद्रा रहित हो, तुम समस्त कौरव पांडव योद्धा परस्पर पूर्ववत् संग्राम आरम्भ कर देना।'
    इस वर्णन से विदित होता है कि वह कृष्ण पक्ष की रात्रि थी। वह कौन सी तिथि रही होगी इसका अनुमान चंद्रोदय के वर्णन से लगाया जा सकता है। उसी अध्याय में आगे कहा गया है (46/48/53)
ततः कुमुदनाथेन कामिनीगण्डपाण्डुना।
नेत्रानन्देन चन्द्रेण माहेन्द्री दिगलंकृता।।
हरवृषोत्तमगात्रसमद्युतिः स्मरशरासनपूर्णसमप्रभः।
नववधूस्मितचारुमनोहरः प्रविसृतः कुमुदाकरबान्धवः।।
प्रतिप्रकाशिते लोके दिवाभूते निशाकरे।
विचेरुर्न विचेरुश्च राजन् नक्तंचरास्ततः।।
    -'तत्पश्चात कामिनियों के कपोलों के समान श्वेत पीत वर्ण वाले नयनानन्ददायी कुमुदनाथ चंद्रमा ने पूर्व दिशा को सुशोभित किया। भगवान शंकर के वृषभ नंदीकेश्वर के उत्तम अंगों के समान जिसकी श्वेत कांति है, जो कामदेव के श्वेत पुष्पमय धनुष के समान पूर्णतः उज्जवल प्रभा से प्रकाशित होता है और नववधू की मंद मुस्कान के सदृश सुंदर और मनोहर जान पड़ता है, वह कुमुदकुल बांधव चंद्रमा क्रमशः ऊपर उठकर आकाश में अपनी चांदनी छिटकाने लगा। चंद्रदेव के पूर्णतः प्रकाशित होने पर जगत में दिन का सा उजाला हो गया। राजन्! उस समय रात में विचरने वाले कुछ प्राणी विचरण करने लगे और कुछ जहां के तहां पड़े रहे।'
     चंद्रमा का यह जो वर्णन है, वह कृष्ण पक्ष के नवमी दसवीं के चंद्रमा का ही हो सकता है। यह शुक्ल पक्ष के चंद्रमा का वर्णन तो हो ही नहीं सकता। अत यह यदि शुक्ल एकादशी को गीता प्रादुर्भाव की तिथि मानी तो उसके 14 दिन बाद सामान्यता कृष्ण नवमी तिथि आती है। फिर महाभारत में यह भी कहा गया है कि युद्ध के समय में एक पखवारा 13 दिन का हुआ था। ऐसी दशा में शुक्ल एकादशी को महाभारत युद्ध का प्रारंभ है या गीता का गायन ठीक घट जाता है और युद्ध के 14वें दिन चंद्रमा का यह वर्णन भी संगत हो जाता है।
    अब प्रश्न यह है कि गीता का प्रादुर्भाव मार्गशीर्ष महीने में ही क्यों माना गया है? इसके भी कुछ तर्कसंगत कारण हमें महाभारत में प्राप्त होते हैं। पहला तो यह कि भगवान कृष्ण संधि का प्रस्ताव लेकर कार्तिक महीने में दीपावली के आसपास कौरवों सभा में गए थे। उनके लौटने के बाद युद्ध की तैयारी की गई और लड़ाई शुरू हुई। इस घटना से महाभारत युद्ध का प्रारंभ मार्गशीर्ष में ही होना सिद्ध होता है। इसके अतिरिक्त जलं भीष्म आहत हुए और शरशय्या पड़ गए, तब दक्षिणायन था। इसीलिए वे उत्तरायण की प्रतीक्षा में शरशय्या पर इतने दिन कष्ट सहते हुए पड़े रह।
     एक दूसरा विचार भी सामने आता है। गीता के 10वें अध्याय में अपनी विभूतियों का वर्णन करते हुए भगवान श्री कृष्ण कहते हैं -'मासानां मार्गशीर्षोऽहम्', 'महीनों में मैं मार्गशीर्ष हूं।' प्रश्न उठता है कि ऐसी कौन सी विशेषता उन्होंने मार्गशीर्ष में देखी कि उसे इतना महत्व प्रदान कर दिया? मार्गशीर्ष में ना तो उत्तरण हुआ होगा और ना ऋतुराज बसंत का आगमन ही। अतएव उक्त उद्गार का आशय विद्वज्जन ऐसा करते हैं कि भगवान कृष्ण का अवतार भूमि का भार हारने के लिए हुआ था और वह भार हरण का कार्य महाभारत युद्ध में विशेष रूप से संपादित हुआ। और चूंकि उनके अवतार का यह मुख्य प्रयोजन मार्गशीर्ष महीने में सिद्ध हुआ इसलिए उन्होंने मार्गशीर्ष को अपना रूप बताया, क्योंकि तभी तो मानव मात्र में रूढ मोह के नाश के लिए गीता मंदाकिनी बहाकर वे विशेष रूप से प्रकट हुए थे।
     फिर हम शांतिपर्व में पढ़ते हैं कि युद्ध के पश्चात धर्मराज युधिष्ठिर का राज्याभिषेक हुआ तथा समस्त मृत आत्माओं की शांति के लिए श्राद्ध कर्म आदि किए गए। तत्पश्चात युधिष्ठिर के मन के खेद को दूर करने के लिए श्री कृष्ण उन्हें अन्य पांडवों के साथ भीष्म पितामह के पास ले गये। तब महाभारत युद्ध को समाप्त हुए 2 दिन हुए थे। पितामह के पास पहुंचकर श्री कृष्ण उनसे कहते हैं (51/14)
पञ्चाशतं षट् च कुरुप्रवीर शेषं दिनानां तव जीवितस्य।
ततः शुभैः कर्मफलोदयैस्त्वं समेष्यसे भीष्म विमुच्य देहम्।।
    -'कुरुवीर भीष्म! अब आपके जीवन के कुल 56 दिन शेषं है। तदनन्तर आप इस शरीर का त्याग करके अपने शुभ कर्मों के फल स्वरुप उत्तम लोकों में जाएंगे।'
     यह बात श्री कृष्ण पौष शुक्ल तृतीया को भीष्म पितामह से कहते हैं ऐसा अनुमान होता है। यहां पर हमें एक बात और माननी पड़ेगी, वह यह कि उस समय पौष महीने का एक अधिक मास हुआ था। इस मान्यता का कारण यह है कि पांडवों ने 1 महीने तक अशौच पालन किया था। यह स्पष्ट नहीं है कि यह अशौच पालन 1 महीने की दीर्घ अवधि के लिए क्यों किया गया। यदि यह अनुमान लगाएं कि पौष मास अधिक मास होने के कारण मल मास भी था, तो यह संभव है कि इस महीने में पांडवों ने अशौच पालन किया हो। यदि यह मान ले तो भगवान श्री कृष्ण ने ऊपर में भीष्म पितामह के 56 दिन और जीवित रहने की जो बात कही है, उसकी पितामह के देह त्याग की तिथि से संगति बैठ जाती है। हम यहां पर गणना महीने को पूर्णिमान्त मानकर कर रहे हैं।
     महाभारत से ज्ञात होता है कि भीष्म पितामह ने युधिष्ठिर प्रमुख पांडवों को जो उपदेश प्रदान किया, वह 5 दिन तक चलता रहा। इसके बाद युधिष्ठिर भाइयों सहित हस्तिनापुर चले जाते हैं और वहां 50 दिन निवास करते हैं। तदनंतर सूर्य को दक्षिणायन से उत्तरायण में आया देख वे भीष्म पितामह के पास दाह संस्कार आदि की सामग्री लेकर आते हैं। महाभारत में लिखा है (अनुशासनपर्व, 167/5)
उषित्वा शर्वरीः श्रीमान् पंचाशन्नगरोत्तमे।
समयं कौरवाग्रय्स्य सस्मार पुरुषर्षभः।।
    -'50 रात तक उस उत्तम नगर में निवास करके श्रीमान पुरुष प्रवर युधिष्ठिर को कुरुकुल शिरोमणि भीष्म जी के बताए हुए समय का स्मरण हो गया।'
    युधिष्ठिर को सम्मुख देखकर भीष्म पितामह कहते हैं (167/26-28)-
दिष्टया प्राप्तोऽसि कौन्तेय सहामात्यो युधिष्ठिर।
परिवृत्तो हि भगवान् सहस्रांशुर्दिवाकरः।।
अष्टपंचाशतं रात्र्यः शयानस्याद्य मे गताः।
शरेषु निशिताग्रेषु यथा वर्षशतं तथा।।
माघोऽयं समनुप्राप्तो मासः सौम्यो युधिष्ठिर।
त्रिभागशेषः पक्षोऽयं शुक्लो भवितुमर्हति।।
    -'कुंती नंदन युधिष्ठिर! सौभाग्य की बात है कि तुम मंत्रियों सहित यहां आ गए। सहस्त्र किरणों से सुशोभित भगवान सूर्य अब दक्षिणायन से उत्तरायण की ओर लौट चुके हैं। इन तीखे अग्रभाग वाले बाणों की शय्या पर शयन करते हुए आज मुझे 58 दिन हो गए, किंतु ये दिन मेरे लिए 100 वर्षों के समान बीते हैं। युधिष्ठिर! इस समय चंद्रमास के अनुसार माघ का महीना चल रहा है। इस पक्ष को बीतने में मात्र तीन मुहूर्त और बाकी है, फिर तो शुक्ल पक्ष लग जाएगा।'
     हमने पहले कहा है कि जिस दिन श्रीकृष्ण ने भीष्म पितामह से उनके और भी 56 दिन जीवित रहने की बात कही है, उस दिन तिथि अनुमानतः पौष शुक्ल तृतीया रही होगी। उसके बाद हम हिसाब लगाएं तो पौष के अधिक मास यानी मलमास को मिलाने पर माघ अमावस्या को 56 दिन पूरे होते हैं। इस प्रकार भगवान कृष्ण और भीष्म पितामह के कथनों की संगति बैठ जाती है। केवल एक ही बात असंगत रह जाती है, वह यह कि भीष्म पितामह उपर्युक्त श्लोक में कहते हैं -'मुझे इस समस्या पर पड़े 58 दिन हो गए।' हिसाब लगाने पर दिखता है कि जब से भीष्म पितामह शरशय्याशायी हुए, तब से उनके देह त्याग तक 66 दिन हो जाते हैं युद्ध की समाप्ति तक आठ दिन, युधिष्ठिर के राज्य अभिषेक आदि में 2 दिन तथा बाद में 56 दिन। यदि ऐसा मान ले कि युद्ध के शेष आठ दिनों को पितामह ने अपनी गिनती में स्थान नहीं दिया और उन्होंने युद्ध के बाद के 58 दिनों को ही अपनी गणना में पकड़ा तो उनका यह कथन संगत हो जाता है। संभव है, युद्ध की समाप्ति तक भीष्म पितामह की ओर अधिक ध्यान न दिया गया हो या उन्होंने स्वयं उस समय तक लोगों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित ना किया हो। जो हो, उपर्युक्त हिसाब से महाभारत में आए इन श्लोकों की संगत बैठ जाती है।

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