गीता की टेक 'युध्यस्व'
गीता मनुष्य को संसार में रहना सिखाती है। संसार रूपी काजल की कोठरी में रहकर हम काजल की कालिमा से कैसे बच सकते हैं, यह गीता की शिक्षा है। हमें संसार में ही रहना है। भले कुछ समय के लिए हम निर्जन में चले जाएं, किसी गहन अरण्य में जाकर गुफा में बैठकर कुछ दिन बिता दें, पर आखिर हमें पुनः संसार के कोलाहल में ही लौट आना है। यह संसार ही मोह का रूप है और इस मोह के मध्य रहकर अपने को मोह से बचाना है। गीता के माध्यम से भगवान श्रीकृष्ण इसी की सीख देते हैं कि मोह में रहकर मोह से निर्लिप्त कैसे हुआ जाए। तभी तो वे बारंबार अर्जुन को युद्ध करने की प्रेरणा देते हैं। वे उसे एक और आत्मा का उपदेश देगें, कहेंगे -अर्जुन! आत्मा अजन्मा और अविनाशी है। अद्वैत का सारा निचोड़ अर्जुन के सामने रखेंगे और फिर कहेंगे -"युध्यस्व"। यही गीता की टेक है। जैसे गीत की एक होती है और गीतकार बारंबार उस टेक में उतर आता है, उसी प्रकार यह 'युध्यस्व' गीता की टेक है। चाहे आत्मा का उपदेश हो या लौकिक दृष्टि से विचार हो, प्रत्येक विचार के उपरांत श्रीकृष्ण के मुख से अर्जुन के प्रति यही टेक सुनाई पड़ती है जरा देखिए-
अन्तवन्त इमे देहा नित्यस्योक्ताः शरीरिणः।
अनाशिनोऽप्रमेयस्य तस्माद् युध्यस्व भारत।। (2/18)
-'हे भारत! इस नाश रहित अप्रमेय नित्यस्वरूप जीवात्मा के ये सब शरीर नाशवान कहे गए हैं, इसलिए तू युद्ध कर।'
स्वधर्ममपि चावेक्ष्य न विकम्पितुमर्हसि।
धर्म्याद्धि युद्धाच्छ्रेयोऽन्यत् क्षत्रियस्य न विद्यते।। (2/31)
-'अपने धर्म को देखकर भी तू भय करने के योग्य नहीं है; क्योंकि धर्मयुक्त युद्ध से बढ़कर दूसरा कोई कल्याण कारक कर्तव्य क्षत्रिय के लिए नहीं है।'
यदृच्छया चोपपन्नं स्वर्गद्वारमपावृतम्।
सुखिनः क्षत्रियाः पार्थ लभन्ते युद्धम् ईदृशम्।। (2/32)
-'हे पार्थ! अपने आप प्राप्त हुए और खुले हुए स्वर्ग के द्वार रूप इस प्रकार के युद्ध को भाग्यवान क्षत्रिय लोग ही पाते हैं।'
हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्गं जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम्।
तस्मात् उत्तिष्ठ कौन्तेय युद्धाय कृतनिश्चयः।। (2/37)
-'हे कौन्तेय! या तो मर कर तू स्वर्ग को प्राप्त होगा या फिर जीतकर पृथ्वी को भागेगा। अतएव तू युद्ध के लिए निश्चय करके खड़ा हो।'
सुखदुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ।
ततो युद्धाय युज्यस्व न एवम् पापम् अवाप्स्यसि।। (2/38)
-'(यदि तुझे स्वर्ग तथा राज्य की इच्छा ना हो तो भी) सुख दुख, लाभ हानि, और जय पराजय को समान समझकर युद्ध के लिए तैयार हो जा। इस प्रकार युद्ध करने से तू पाप को नहीं प्राप्त होगा।'
मयि सर्वाणि कर्माणि संन्यस्यात्मचेतसा।
निराशीर्निर्ममो भूत्वा युध्यस्व विगतज्वरः।। (3/30)
-'हे अर्जुन! तू ध्याननिष्ठ चित्त से समस्त कर्मों का मुझ में समर्पण करके, आशा, ममता और संताप को त्याग कर युद्ध कर।'
तस्मात् सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च।
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यसि असंशयम्।। (8/7)
-'अतएव हे अर्जुन! तू सब समय निरंतर मेरा स्मरण कर और युद्ध कर। इस प्रकार मुझ में अर्पित किए हुए मन, बुद्धि से युक्त हुआ निस्सन्देह तू मुझी को प्राप्त होगा।'
द्रोणं च भीष्मं च जयद्रथं च
कर्णं तथान्यानपि योधवीरान्।
मया हतांस्त्वं जहि मा व्यथिष्ठा
युध्यस्व जेतासि रणे सपत्नान्।। (11/34)
-'हे सव्यसाचिन्! इन द्रोणाचार्य, भीष्मपितामह, जयद्रथ, कर्ण एवं अन्य और भी अनेक शूरवीर योद्धाओं को, जो मेरे द्वारा पहले से ही मारे जा चुके हैं, तू मार। तू डर मत। तू निस्सन्देह युद्ध में बैरियों को जीतेगा। अतएव उठ, युद्ध कर।'
इसी को हम ने गीता की टेक कहा। जब युद्ध करने आए हो, तो फिर मुंह पीछे न फेरो। युद्ध में पीठ न दिखाओ। हम भी तो अर्जुन के समान युद्ध में रत हैं। जैसे अर्जुन में दो सेनाओं के बीच में खड़ा था, उसी प्रकार हम भी दो सेनाओं का सामना कर रहे हैं। हमारे भीतर सतत महाभारत चल रहा है। अर्जुन का महाभारत तो 18 दिन में समाप्त हो गया, पर हमारे भीतर का महाभारत जाने कितने जन्मों से अनवरत चला हुआ है। हमारे भीतर भी दो सेनाएं हैं -एक है देवताओं की सेना, शुभ प्रवृत्तियों की सेना और दूसरी है असुरों की सेना, अशुभ प्रवृत्तियों की सेना। देवासुर संग्राम प्रत्येक मनुष्य के अंतर में चला हुआ है और हम भी अर्जुन की तरह बीच में खड़े हैं। अच्छाई और बुराई की यह ठनाठनी क्षण प्रतिक्षण चल रही है। हमारे भीतर अपना की आवाज उठती है, फिर शैतान भी अपने बोल सुनाता रहता है। आत्मा की आवाज हमें कुपथ में जाने से रोकती है, हमें सावधान करती है कि कहीं असुरों के फंदे में पड न जाना। वह हमारा सही सही मार्गदर्शन करती है। पर शुभ की यह आवाज बहुधा क्षीण होती है। दूसरी ओर अशुभ मानो बुलंद आवाज में हमसे कहता है -'अरे यह क्या अच्छाई अच्छाई की रट लगा रखी है! संसार में अच्छाई कहीं भी? छल प्रपंच, कपट द्वेष का ही नाम तो संसार है। अगर आगे बढ़ना है तो दूसरों को छलो। अगर संसार में बचे रहना है तो दूसरों को ठगों, सबसे धोखाधड़ी करो, येन केन प्रकारेण अपना उल्लू सीधा करो।' और हम दोनों आवाजों के बीच, अर्जुन के समान विभ्रमित हो, खड़े हो जाते हैं। हमें कुछ सूझ नहीं पड़ता। बलात् हमारे पैर असुर सेना की ओर खींचने लगते हैं। तब मन के किसी अज्ञात कोने से एक धीमा सा स्वर सुनाई पड़ता है -'मैं तुम्हारा शुभाकांक्षी हूं। मैं तुम्हारे भीतर का शुभ हूं, देवता हूं, भले अभी शिथिल हूं, और पूरी तरह सोया नहीं हूं। जिस रास्ते तुम कदम बढ़ा रहे हो उससे तुम्हारा अमंगल ही होगा।' और तब हमारे पैर ठिठक जाते हैं। हृदय के भीतर मंथन होने लगता है। एक ओर संसार के सुनहरे सपने, तड़क-भड़क का प्रलोभन, आमोद प्रमोद का जीवन, इंद्रियों को उत्तेजित और तृप्त करने के साधन, और दूसरी ओर जीवन के शाश्वत मूल्यों की झांकी, इंद्रियों और मन के स्वामी बनने का दृश्य, त्याग और संयम का जीवन। और इन दोनों के बीच हम मथित होने लगते हैं।
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