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कर्मकाण्ड और ज्ञानकाण्ड का भेद

कर्मकाण्ड और ज्ञानकाण्ड का भेद

     हम पिछले भाग में पढ़ चुके हैं कि वेद मानव मन के विकास की गाथा प्रस्तुत करते हैं। हमने यह भी देखा कि वेदों को दो भागों में विभाजित कर दिया गया और उन दोनों भागों में- कर्मकांड और ज्ञान कांड में- विवाद प्रारंभ हो गया। कर्मकांड पूर्व मीमांसा के नाम से भी परिचित हुआ। यज्ञ और क्रिया अनुष्ठान आदि ही कर्मकांड के प्राण थे। ज्ञानकांड को उत्तर मीमांसा के नाम से पुकारा गया, उसमें विचार की प्रधानता थी और इस विश्व के अंतराल में निहित सत्य को जानने का आग्रह था। जहां कर्मकांड यज्ञो के द्वारा देवताओं को प्रसन्न कर स्वर्ग प्राप्ति को ही जीवन का लक्ष्य मानता था। वहां ज्ञानकांड स्वर्ग को मृत्युलोक की ही एक आवृत्ति समझकर चिंतन और मनन के द्वारा जीवन के आधारभूत शक्तियों को पकड़ने के लिए आकुल था। अतः स्वाभाविक ही कर्मकांड के अनुयायियों ने इस संसार को सत्य समझ कर इसी को पकड़ने की कोशिश की, जबकि ज्ञानकांड के अनुयायियों ने संसार को प्रपंच और बंधन स्वरूप माना। उनका कहना था कि स्वर्ग आदि का आकर्षण जीवन के वास्तविक सत्य को आंखों से ओझल कर देता है। यह एक वैज्ञानिक प्रवृत्ति थी जो भारत की वसुंधरा पर अंकुरित हो रही थी।
हम पहले ही बता चुके हैं कि ज्ञानकांड अनुयाई चिंतक किस्म के व्यक्ति थे। उन्होंने सत्य के अनुसंधान के लिए नई-नई प्रणालियां खोजी और एक दिन उन्होंने सत्य को जान लिया। उन्होंने घोषणा की कि अज्ञान ही समस्त दुख का कारण है। अज्ञान मनुष्य को संसार और उसके भागों से बांध देता है। स्वर्ग भी प्रकारांतर से संसार का भोग ही है। अतः इस बंधन से मुक्ति का उपाय उन्होंने ज्ञान में देखा।
    ज्ञान काका तात्पर्य यह है कि जो निहित है, उसकी अभिव्यक्ति हो जाए ज्ञान का तात्पर्य यह नहीं कि जो नहीं है, उसे जानने का प्रयास किया जाए। जो है उसी को जानना ज्ञान का प्रमुख कार्य है। जब तक हम किसी नियम को नहीं जानते होते तब तक नियम हमें चलाता है और जब हम नियम को जान लेते हैं, तो हम स्वयं नियम पर हावी हो जाते हैं। ज्ञान का यही सौंदर्य है जब तक हम मशीन को नहीं जानते होते तब तक मशीन हमें चलाती है, पर जब हम मशीन के कल पुर्जों को जान लेते हैं तब हम मशीन को चलाने लगते हैं। ज्ञान अपने आपको दो धरातलों पर व्यक्त करता है- एक है वाह्य और दूसरा आंतर। वाह्य धरातल पर ज्ञान के प्राकट्य को हम विज्ञान या साइंस कहते हैं और आंतर धरातल पर ज्ञान की अभिव्यक्ति को आध्यात्मिकता, या साधारणतः धर्म के नाम से पुकारते हैं।
    ज्ञान हमें बंधन से मुक्ति दिलाता है। जब तक न्यूटन ने गुरुत्वाकर्षण का सिद्धांत नहीं खोज निकाला था, तब तक गुरुत्वाकर्षण की शक्ति न्यूटन और हम सब पर हावी थी, और जिस दिन न्यूटन ने प्रकृति की इस छुपी हुई शक्ति को जान लिया, वह उस पर हावी हो गया और उसने ग्रह नक्षत्रों के बारे में कितने तथ्य खोल कर रख दिए। जब तक हम अंतरिक्ष विज्ञान को नहीं जानते थे तब तक वह हमारे लिए बंधन था। पर जब वैज्ञानिकों ने अंतरिक्ष के नियमों को जान लिया है तब से वह अंतरिक्ष में चक्कर मार सकते हैं।
    इसी प्रकार आंतरिक धरातल पर प्रकट ज्ञान हमारे मनोगत बंधनों को छिन्न कर देता है और हमारे समक्ष चेतना के नए आयाम प्रस्तुत करता है । आंतरिक धरातल पर ज्ञान को प्रकट करने वाली विधि को योग के नाम से पुकारा गया है। पिछले चर्चा में इसका उल्लेख करते हुए हमने कहा था की शास्त्रीय अर्थ में "योग" का तात्पर्य है- मन की वृत्तियों का निरोध। हमारा मन बड़ा चंचल है, वह स्थिर नहीं हो पाता। मन में असीम संभावनाएं निहित है, पर उसकी चंचलता के कारण यह संभावनाएं व्यक्त नहीं हो पाती। यदि मन किसी उपाय से अपने ही ऊपर एकाग्र हो जाए तो धीरे-धीरे वह अपनी परतो का भेदन करने लगता है और इस प्रकार अपनी विभिन्न परतों में छिपे नियमों और शक्तियों को प्रकट करने लगता है। एक अवस्था ऐसी भी आती है जब मन अपनी परतों का भेदन करता हुआ अपने आप को लांघ भी जाता है। यही सत्य को देखने की अवस्था है। इसी को आत्म साक्षात्कार या ब्रह्म अनुभूति कहते हैं। इस अवस्था को 'अमनी मन' भी कहा गया है।
    जैसे, आलोक की सामान्य किरण। इस किरण में भेजने की शक्ति नहीं होती; वह किसी वस्तु में अधिक गहराई तक नहीं जा सकती। पर यदि किसी किरण की स्पंदन गति (फ्रीक्वेंसी) को तीव्र कर दें, तो वह एक्स-रे बन जाती है और कई परतों को भेद कर निकल जाती है। यही बात मन पर भी लागू है। जब तक वह चंचल है, तब तक उसमें अंतर भेदन की शक्ति नहीं होती, वह छिछला और अपनी असीम शक्ति से अनभिज्ञ होता है। पर जिस समय मन को उसके अपने ही ऊपर एकाग्र किया जाता है, तो उसमें अपने भीतर उतरने की क्षमता आती है।
    वैसे तो मन अपनी रूचि के विषयों में स्वाभाविक ही एकाग्र हो जाता है। पर मन की ऐसी एकाग्रता को योग नहीं कहते। जिस समय मन को अन्य सब विषयों से समेट कर उसके स्वयं के ऊपर केंद्रित किया जाता है, तब योग की साधना शुरू होती है। चिंतन, मनन और ध्यान ही इस साधना के अंग उपांग हैं।
    तो, यह विचारधारा थी उन चिंतकों की, जो ज्ञानकांड के उत्तरमीमांसा के अनुयाई थे। उनके लिए संसार मिथ्या और स्वप्नवत था। अतः स्वाभाविक था कि उनका कर्मकांड के अनुयायियों से विरोध होता, क्योंकि कर्मकांड के लिए यह संसार ही उपभोग्य और वरेण्य था।

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