गीता के अध्यायों की पुष्पिका
जब हम अध्यायों की समाप्ति पर पुष्पिका को पढ़ते हैं, तो क्या बोध होता है? प्रत्येक अध्याय की समाप्ति पर हम पढ़ते हैं- "ऊँ तत्सदिति। श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे ........।" ऊँ तत्सत्- यह पहला वाक्य ईश्वर की सत्ता को स्वीकार करता है। इस जडसृष्टि के अंतराल में विश्व का नियमन करने वाली एक परम बोधमय सत्ता विद्यमान है। यह सारा पसारा उस सत्ता का ही है। ईश्वर कोई व्यक्ति विशेष नहीं, जो आसमान में कहीं पर बैठा हो। यह विराट अवस्थिति, यह निरंतर सत् का- अस्तित्व का भाव, यह शासन करने वाला सबसे अनुस्यूत तत्व- यही ईश्वर है। इसी को बुद्ध ने 'धम्म' के नाम से पुकारा। यह ईश्वर अनंत नियमों का पुंज है। वहां आकस्मिकता नामक कोई चीज नहीं। सारी घटनाएं विश्व के समस्त क्रम नियमों से बधें हैं। नियमों को न जानने के कारण हम कमजोर होते हैं। इन्हीं नियमों की खोज जब बाहर के यानी भौतिक धरातल पर की जाती है, तो उसे 'साइंस' या विज्ञान की प्रक्रिया कहते हैं। जब मन के धरातल पर नियमों का अनुसंधान किया जाता है, तो हम उसे अध्यात्म की प्रणाली के नाम से पुकारते हैं।
तो, कहा गया कि गीता के अध्यायों की पुष्पिका सर्वप्रथम उस ईशन करने वाले ईश्वर के अस्तित्व की घोषणा करती है। फिर इसके बाद कहा- 'श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु'- श्रीमद्भगवद्गीता उपनिषद में'। यहां पर गीता को उपनिषद कहा। इसके पूर्व बताया था कि गीता उपनिषद रूपी गायों का दूध है, यानी उपनिषदों का निचोड़ है। यहां कहते हैं कि केवल निचोड़ नहीं बल्कि गीता उपनिषद ही है। और कैसा उपनिषद? श्रीमद्भगवद्गीता- श्रीभगवान के द्वारा गाया हुआ। उपनिषद शब्द संस्कृत में स्त्रीलिंग में चलता है, इसलिए उसके विशेषण में 'भगवद्गीत' न कह भगवद्गीता कहा है। 'गीता' का मतलब होता है 'जो गायी गयी हो'। तो श्रीभगवान् स्वयं जिस उपनिषद का गायन करते हैं, उसी का नाम हुआ गीता। यह माहात्म्य है गीता का। और वास्तव में गीता इतना पूर्ण शास्त्र है कि यदि उसे ईश्वर प्रोक्त कहा जाए तो कोई अत्युक्ति न होगी।
फिर, उसके बाद पुष्पिका में कहा कि गीता ब्रह्मविद्या है, और योगशास्त्र भी। हमने ऊपर कहा कि गीता अध्यात्म और व्यवहार, शास्त्र और कला दोनों का अत्युत्तम मेल करती है। हम पहले कह चुके हैं योग की दो सुंदर परिभाषाएं गीता में दृष्टव्य हैं। एक परिभाषा यदि ज्ञानपरक है, अध्यात्मपरक है, शास्त्रपरक है, तो दूसरी परिभाषा कर्मपरक है, व्यवहारपरक है, कलापरक है। एक नेह कहा- 'समत्वं योग उच्यते' तो दूसरे ने कहा- 'योगः कर्मसु कौशलम्'।
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