कृष्ण का क्रांतिकारी रूप
इसे मैं कृष्ण का दूसरा क्रांतिकारी विचार करता हूं। पहला तो हमने यह देखा था कि प्रत्येक कर्म को यज्ञ बन सकता है भगवान की पूजा बन सकता है। अब यहां भगवान श्री कृष्ण परम गति का दरवाजा सबके लिए खोल देते हैं। भले ही परंपरा कतिपय वर्ग के लोगों को पापयोनि माने, पर कृष्ण इसे स्वीकार करने के लिए प्रस्तुत नहीं। इस परंपरा का विरोध करते हैं और कहते हैं कि जो भी सच्चे मन से भगवान की शरण आ जाता है वह परम पद का अधिकारी है। इसके दृष्टांत स्वरूप हम महाभारत में 'व्याधगीता' के प्रसंग में एक आख्यान पाते हैं, जहां ब्राम्हण कुमार तपस्वी कौशिक गार्हस्थ्य धर्म का पालन करने वाली महिला से ज्ञान प्राप्त करता है तथा बाद में मिथिला जाकर धर्मव्याध नामक कसाई से वेदांत संबंधी शंकाओं का समाधान कराता है। इसी प्रकार एक अन्य स्थान पर जाजलि नामक ऋषि तुलाधार वैश्य से जीवन और अध्यात्म के रहस्य की शिक्षा प्राप्त करते हैं।
कहने का तात्पर्य यह है कि महाभारत गीता पर एक विशद टीका है। और अभी हमने कहा कि उसका दृष्टिकोण अत्यंत क्रांतिकारी है। महाभारत काल के भारत की कल्पना कीजिए जब प्रतीत होता है, कि धर्म के क्षेत्र में पर्याप्त अंधविश्वास विद्यमान था, जब धर्म के नाम पर लोगों का शोषण होता था। इसका अंदाजा इसी से लग जाता है कि स्त्री, वैश्य और शूद्र को पापयोनि कहा जाता था। कृष्ण इस धार्मिक और सामाजिक शोषण के विरोध में उठ खड़े होते हैं और घोषणा करते हैं कि परम पद को पाने का अधिकार मनुष्य को जन्म से नहीं मिला करता। एक विशेष वर्ग में पैदा हो जाने मात्र से मनुष्य को ज्ञान का अधिकार नहीं मिल जाता। यह अधिकार तो मनुष्य अपने कर्मों और अपनी बुद्धि से प्राप्त करता है। इसी के दृष्टान्तस्वरूप हम महाभारत में उस महिला, उस तुलाधार वैश्य और धर्मव्याध शूद्र को ज्ञान का अधिकारी देखते हैं और यह भी देखते हैं कि वे अपने कर्मों को यज्ञ बनाकर इतने ऊपर उठ गए हैं कि उन्होंने ब्राह्मण तपस्वी कौशिक और जाजलि मुनि को ज्ञान के उपदेश देने का अधिकार प्राप्त कर लिया।
तभी तो कृष्ण अर्जुन को अपने ही कर्म में लगे रहने का उपदेश करते हैं। अर्जुन ने युद्ध को घोर कर्म माना। वह भिक्षा द्वारा जीवन यापन को श्रेयस्कर मानने लगा था। भगवान उसकी भ्रान्तिः को दूर करते हुए कहते हैं-
स्वे स्वे कर्मण्यभिरतः संसिद्धिं लभते नरः।
स्वकर्मनिरतः सिद्धिं यथा विन्दति तच्छृणु।। (18/45)
यतः प्रवित्तिर्भूतानां येन सर्वमिदं ततम्।
स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानवः।। (18/46)
-'अपने अपने कर्मों में लगे रहकर मनुष्य सिद्धि की अवस्था को प्राप्त कर लेता है। अपने कर्म में निरत रहकर वह सिद्धि किस प्रकार पाता है, वह उपाय सुन। जिस परमात्मा से समस्त चराचर जगत् की उत्पत्ति हुई है, और जिससे यह सारा विश्व व्याप्त है, उसकी अपने कर्मों के द्वारा पूजा करते हुए मनुष्य सिद्धि को पा लेता है।'
इस प्रकार हम देखते हैं कि गीता भगवती उस संसिद्धि की प्राप्ति के लिए सभी का आह्वान करती हैं। उनकी दृष्टि में जीवन के परम प्रयोजन को प्राप्त करने के लिए पुरुष या स्त्री का भेद नहीं है, और न ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र का ही भेद है। उसके लिए कोई गोरा और काला नहीं है, उसकी दृष्टि में देश और धर्म का कोई विभेद नहीं है। जो सुधी है, विवेकी है, इस संसार में रहते हुए भी संसार को अपना न मान, उस परमेश्वर को ही अपना मानता है, वही गीता ज्ञान का अधिकारी है।
भगवान श्रीरामकृष्णदेव भक्तों को उपदेश देते हुए कहा करते थे संसार में रहो, पर संसार तुममे ना रहे। नाव जल में रहे यह ठीक है, पर जल नाव में रहे यह ठीक नहीं है। जिसकी बुद्धि में ऐसी धारणा हो गई है, वह सुधी है और वही गीतारूपी दुग्धामृत के पान का अधिकारी है।
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