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कर्म करने के दो दृष्टांत

कर्म करने के दो दृष्टांत

     मान लीजिए कि दो व्यक्ति हैं। एक व्यक्ति ईश्वर पर विश्वास करता है, और दूसरा व्यक्ति ईश्वर को नहीं मानता, वह कहता है कि मैं स्वयं कर्म करता हूं और स्वयं कर्म के फल को प्राप्त भी करता हूं, ईश्वर कर्म फल प्रदान नहीं करता, बल्कि मैं स्वयं कर्मफल दाता हूं। पहला व्यक्ति सर्वत्र ईश्वर को विद्यमान देखता है, वह कर्म तो करता है, पर उसके फल को ईश्वर के चरणों में समर्पित कर देता है। अब दोनों व्यक्ति कार्य क्षेत्र में पदार्पण करते हैं। मान लीजिए दोनों अपने कार्य में सफल हो जाते हैं। जो व्यक्ति ईश्वर पर विश्वास नहीं करता वह कहता है, कि मैंने अपनी बुद्धि के बल पर इस कार्य को साधा है। इस प्रकार विचार कर वह अधिक अहंकारी बन जाता है। किंतु दूसरा व्यक्ति जो ईश्वर में विश्वास रखता है, सफल होने पर कहता है, कि प्रभु तुम्हारी शक्ति और कृपा के फलस्वरूप यह सफलता मुझे मिली है। इस प्रकार वह अधिक विनम्र और विनयी हो जाता है। बाहर से इन दोनों व्यक्तियों में कोई अंतर दिखाई नहीं देता। किंतु भीतर से देखने पर एक के मन में तो अहंकार की वृद्धि होती है, और दूसरे के मन में विनय का संचार होता है।
    अब देखें कि जब दोनों किसी काम में असफल हो जाते हैं, तो उनमें क्या प्रक्रिया होती है? असफल होने पर ईश्वर को न मानने वाला अहंकारी व्यक्ति, दूसरों को अपनी असफलता के लिए दोषी ठहराता है। वह कहता है कि मेरे दोस्तों ने मुझे दगा दिया। असफलता की चोट से वह रोने लगता है, कई लोग असफलता को न सह सकने के कारण पागल हो जाते हैं, और अनेक आत्मघात कर लेते हैं। आजकल ऐसी घटनाएं बहुत दिखाई देती हैं। काम में असफल होने पर लोग जहर खा लेते हैं, रेल की पटरियों पर सो जाते हैं, आग लगा लेते हैं, पानी में डूब कर मर जाया करते हैं। पर जो व्यक्ति ईश्वर पर विश्वास करता है, जो यह मानता है कि कर्म के फलों का प्रदाता भगवान है। वह जब असफल होता है तो ईश्वर को संबोधित करके कहता है, कि प्रियतम असफलता का दुख तो अवश्य है, पर मेरा यह दृढ़ विश्वास है कि तुम्हारे इस विधान के पीछे, मेरा कोई मंगल साधन ही होगा। यद्यपि मुझे अपने कर्म का वांछित फल आज नहीं मिला है। पर तुम अवश्य मेरा मंगल करोगे क्योंकि, तुम मंगलमय हो। मैं आज अपने अज्ञान के कारण तुम्हारे इस विधान को भले ही समझ नहीं पा रहा हूं, पर मुझे पूरा विश्वास है कि यह असफलता भी मेरे मंगल के लिए ही है। ऐसा कह कर वह पुनः शक्ति एकत्रित कर, आगे के कार्यों में जुट जाता है। जब अहंकारी को एक छोटी सी असफलता चकनाचूर करके रख देती है, वहां यह दूसरा व्यक्ति भगवान पर विश्वास रखता, संकटों का सामना करने के लिए तैयार हो जाता है। वह संकटों को भगवान की कृपा समझकर स्वीकार करता है। इस दृष्टिकोण के आलंबन से उसका जीवन असंतुलित नहीं हो पाता, यह संतुलन ही योग कहलाता है।
    इस प्रकार कर्म करते समय केवल यही दो प्रकार के दृष्टिकोण संभव हैं। जहां अहंकार प्रेरित होकर कर्म करने वाला व्यक्ति, ईश्वर को न मानने वाला व्यक्ति, संसार की तनिक सी चोट से उखड़ जाता है। टूट कर बिखर जाता है। वही ईश्वर में विश्वासी व्यक्ति संसार के आघात प्रतिघात को ईश्वर का मंगलमय विधान मान लेता है। और भविष्य के लिए कमर बांध कर खड़ा हो जाता है, वह टूटता नहीं है, वह बिखरता नहीं, बल्कि ईश्वर की कृपा में विश्वासी होकर, अधिक उत्साह के साथ परिस्थितियों का सामना करने के लिए उद्यत हो जाता है।

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